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रविवार, 26 जुलाई 2020

गीत,कविता और कहानी

गीत,कविता और कहानी


अखिल भारतीय आदिवासी हल्बा—हल्बी समाज छत्तीसगढ़

Posted: 26 Jul 2020 12:02 PM PDT

अखिल भारतीय आदिवासी हल्बा—हल्बी समाज छत्तीसगढ़


फुलपरी फुलपरा या किरा भात एक परंपरा // fullpari fulpra ya kira bhaat ek parampra

Posted: 25 Jul 2020 10:03 PM PDT

 किरा भात एक सामाजिक कुरीति
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छत्तीसगढ़ के सामाजिक परिवेश में एक सामाजिक कुरीति देखने को मिलता है जिसे फुलपरी या किरा भात के नाम से जाना जाता है इसे क्षेत्र के अनुसार भिन्न भिन्न नामो से भी जाना जाता है


परंतु बस्तर क्षेत्र और राजनांदगांव क्षेत्र में इसे मुख्यतः किरा भात या फुलपरी,फुलपरा के नाम से जानते है बांकी अन्य जिलों में किरा भात के नाम से जाना जाता है अब जो नही सुने है या थोड़ा बहुत सुने हो उनके मन में इसको जानने का जिज्ञासा हो रही होगी जी हा दोस्तो तो चलो आपको विस्तार से बताते है


की ये किरा भात वाली बला होती क्या है आपके मन में जो भी शंका होगा समाधान करने की कोशिश करूँगा ,,


कीड़ा पड़ने के कारण (लक्षण)
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साफ सफाई की कमी के कारण और शारीरिक कमजोर लोगों को होता है जिनका रोग प्रतिरोधकता क्षमता कम होती है उन्हें यह होता है यह किसी उम्र विशेष में होने वाले कोई वंशानुगत बीमारी नही है


अपितु यह किसी भी उम्र और किसी भी लिंग के लोगों को हो सकता है जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम है या जिनके हीमोग्लोबिन में थ्राम्बोप्लास्टिक की कमी पाया जाता है उनको यह होने का चांस अधिक होता है साथ ही शुगर पेशेंट जिनका घाव जल्दी ठीक नही होता और जो घाव के प्रति लापरवाही करते है


उन्हें होने का चांस अधिक होता है ठीक ऐसे ही एक और बीमारी होता है जिसे न्यूरॉसटिकेरकोसिस (दिमागी कीड़ा)

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 कहते है इसी रोग के कारण मिर्गी वगेरा आता है यह फूलपरी से बिल्कुल भिन्न है फुलपरी में कीड़ा सिर के ऊपर घाव में होता है जबकि न्यूरॉसटिकेरकोसिस (दिमागी कीड़ा) में कीड़ा सिर के अंदर होता है सिस्ट के रूप में जिन्हें एक्सरे के द्वारा देखा जा सकता है


डॉक्टरों का मानना है की यह कच्चे सब्जी सलाद या अधपके पत्ता गोभी खाने से या सुवर इन्फेक्टेड सुवर मिट खाने से न्यूरॉसटिकेरकोसिस (दिमागी कीड़ा) होता है इनका कई वीडियो आपको यूट्यूब और कई सारा जानकारी आपको गूगल में हजारो की संख्या में मिल जाएगा आगे चर्चा करते है फुलपरी की




सिर के ऊपरी भाग के कीड़े एंव शरीर के अन्य हिस्सो में हुए कीड़े को मारने का तरीका(उपाय)
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अभी तक जो कारगार तरीका निकालकर आया है उसमे है एंटीसेफ्टिक के लिए जो हल्दी की गांठ को अच्छे से पानी में भिगोकर पीसकर घाव को साफ कर लेप करना व लहसुन को भी थोड़ा भूनकर लेप करना जिससे कीड़े आसानी से मर जाते है और हल्दी से छोटी मोटी फंगर होने वाला रहता है वो भी नष्ट हो जाता है


अगर इसके अलावा भी कोई उपाय है तो कमेंट में अपना रॉय पोस्ट जरूर करिएगा जंहा तक अगर बैगा या जो फुलपरी की उपचार करते है उनकी इलाज जाने तो कांफी मंहगा और कई प्रकार के मिक्स दवाई यूज़ करते है और वे यह दवाई बताने में संकोच करते है वे शायद इसलिए नही बताते होंगे


की अगर बता देंगे तो हमारे पास कौन आएगा करके खैर जो भी चलो बात करते है  हमारे यंहा (छत्तीसगढ़) जबतक वह इंसान पूरी तरह ठीक नही हो जाता तब तक उस व्यक्ति को नीम और नीबू के काढ़े से नहलाया जाता है तांकि उनके शरीर में और अगर फंगर हो रहे होंगे वह नष्ट हो करके अब चलो आते  है इनके सामाजिक पहलू में


फुलपरी/फुलपरा (कीड़ा हुआ व्यक्ति)
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जिस व्यक्ति के शरीर पर कीड़ा हो जाता है उसे फुलपरी या फुलपरा कहा जाता है छत्तीसगढ़ में और इसे छत्तीसगढ़ में एक अशुभ या एक दोष माना जाता है  यह बहुत कम होता है या नगण्य माना जा सकता है यह लगभग 1 लाख प्रतिव्यक्ति में किसी 1 को हो सकता है


नही तो वो भी नगण्य माना जा सकता है , यह फुलपरी/फुलपरा जो कीड़ा होता है यह मुख्यतः सिर के ऊपरी हिस्से में होता है और जंहा पर होता है वहां गड्ढा हो जाता है थोड़ा सा,


और यह शरीर के अन्य अंगों में भी घावों में हो सकता है  अगर सही समय पर घावों की सही सही देखरेख न किया जाए तो और लापरवाही बरती जाए या सही समय में इलाज न किया जाए तो इनमें कीड़े पड़ने की सम्भावना अधिक रहती है यह कई कारणों से हो सकते है जैसे साफ सफाई में लापरवाही ,


खानपान में लापरवाही और घावों के ईलाज के प्रति लापरवाही आदि , जिस व्यक्ति पर कीड़ा हो जाता है उसे मरे समान माना जाता है और व्यक्ति इलाज के बाद बच भी जाता है तो उन्हें सामाजिक दोषी मानकर फुलपरी/फुलपरा भात खिलाना पड़ता है , और इसमें वह सभी क्रियाकलाप को शामिल किया जाता है


जो एक मृत्युभोज में किया जाता है और यह कहना अतिशयोक्ति नही होगी की मृत्युभोज से भी बढ़कर फुलपरी और फुलपरा का नियमधियम किया जाता है और उस व्यक्ति को एक प्रकार का दोषी या अशुभ माना जाता है,,


 सामाजिक कुरीति को त्यागना अतिआवश्यक है
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यह फुलपरी/फुलपरा हुए व्यक्ति को सामाजिक रूप से जो मृत्युभोज जैसा समाज को खिलाना पड़ता है तथा उस व्यक्ति को एक दंश झेलना पड़ता है जिससे वह व्यक्ति खुद को एक हीन व्यक्ति मान लेता है तथा इसी के चलते और कई सारी अप्रिय घटना घटित होता है समाज में परिवार में इसलिए मेरा मानना है


की इस सामाजिक कुरीति को दूर करने के लिए हम सभी को प्रयास करनी चाहिए आज के लिए बस इतना ही अब मुझे दीजिए बिदाई जय माँ दन्तेश्वरी 

आपका अपना
 आर्यन चिराम
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आदिवासी गोदना प्रथा // adiwasi godna prtha

Posted: 25 Jul 2020 09:58 PM PDT

 गोदना

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जैसे की आप सभी जानते है की गोदना का हमारे आदिवासी सामाज में विशेष महत्व रहता था और रहता है कभी हमने और आपने इस बारे में सोचा है 


की क्यो यह गोदना गुदवाते है क्या कारण है की पहले हमारे पूर्वज गोदना गुदवाना जरुरी समझते थे! और ये गोदना प्रथा कब से लागु हुआ और क्यों लागु हुआ इन सभी पक्षों पर आज हम चर्चा करने वाले है चर्चा में जोड़ने से पहले मै आप लोगों से कहना चाहूँगा की आपका जो भी डाउट हो जरुर हमसे चर्चा करें आज हम गोदना के तीनो पक्षों पर सामाजिक पक्ष 
,सांस्कृतिक पक्ष ,वैज्ञानिक पक्ष और धार्मिक पक्ष पर चर्चा करेंगे

गोदना का इतिहास

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एक मान्यता के अनुसार गोदना का प्रारम्भ पाषण यूग से माना जाता है इस पर तर्क रखते हुए यह कहा जाता है की पहले लोग शिकार करते करते जख्मी हो जाते थे,या किसी प्रकार के घाव हो जाता था वंहा लोग लकड़ी के छिलके या रस को डालते थे तो वह उस जगह जन्हा घाव हुआ रहता था वंहा पर काले निशान बन जाता था और कुछ आकृति जैसे दिखाई देता था और कभी कभी शारीर के चमड़ी भी बहार निकल आता था परन्तु इनका वास्तविक अविष्कार
 ईसा से 1300 साल पहले मिस्र में, 300 वर्ष ईसा पूर्व साइबेरिया के कब्रिस्तान में मिले हैं।...ऐडमिरैस्टी द्वीप में रहने वालोंफिजी निवासियोंभारत के गोड़ एवं टोडोल्यू क्यू द्वीप के बाशिंदों और अन्य कई जातियों में रंगीन गुदने गुदवाने की प्रथा केवल स्त्रियों तक सीमित है... मिस्र में नील नदी की उर्ध्व उपत्यका में बसने वाले लटुका लोग केवल स्त्रियों के शरीरों पर क्षतचिह्न बनवाते हैं।एक सबूत जो प्रागैतिहासिक लोगों को पता था और टैटू बनाने का अभ्यास करते थेवे उपकरण हैं जो फ्रांसपुर्तगाल और स्कैंडिनेविया में खोजे गए थे। ये उपकरण कम से कम 12,000 साल पुराने हैं और टैटू बनाने के लिए उपयोग किए गए थे। सबसे पुराने जीवित टैटू हैंएज़्ज़ी द आइसमैनमम्मी आल्प्स में Ötz घाटी में पाए जाते हैं और 5 वीं से 4 वीं सहस्राब्दी ईसा पूर्व तक डेटिंग करते हैं। हम यह भी जानते हैं कि जर्मनिक और केल्टिक जनजातियों ने भी खुद को गोद लिया था। प्राचीन मिस्र से अमुनेट की मम्मी और पज़्रिआर्कसाइबेरिया में ममीज़, (दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के अंत से डेटिंग)। इसलिए टैटू दुनिया भर में मानव इतिहास में बहुत पहले से जाना जाता था।जापान में टैटू अन्य देशों की तुलना में काफी बाद में आया / जापान में इसका चलन 1603 से 1868 के बीच ही मिलता है / यहाँ निम्न दर्जे के लोग ही टैटू बनाया करते थे ताकि सामाजिक पहचान कायम रह सके फिर 1720 से 1870 के मध्य कुछ जापानी अपराधियों में भी कानून टैटू बनाये जाने लगे ताकि उनकी पहचान हो सके /
एक मजेदार बात जापानी टैटू में यह थी कि यहाँ अपराधियों के कलाई पर रिंग बनाकर सजा ख़त्म होती थी अगर दुबारा वही अपराधी आता था तो सजा समाप्ति पर दूसरा रिंग बना दिया जाता था
प्राचीन मिस्र और भारत ने उपचार के तरीकों के रूप में और धार्मिक पूजा के तरीकों के रूप में टैटू का उपयोग किया। वे एक समाज में एक स्थिति के निशान भी थे लेकिन एक सजा भी। फिलीपींस में टैटू रैंक और उपलब्धियों के निशान थे और वहां के लोगों का मानना ​​था कि उनके पास जादुई गुण हैं।

भारत में गोदना का आरम्भ

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1.सामाजिक पक्ष
भारत की बात की जाय तो गोदना सिन्धु घाटी सभ्यता के बाद आर्य लोगों के आगमन के बाद माना जाता है गोदना आरम्भ होने के पीछे की कई किवंदती है परन्तु अगर इसका असली बात में पंहुचा जाए तो यह बात सामने आती है की जब आर्य लोग भारत में आक्रमण किये तो यंहा के मूल निवासियों पर कई अत्याचार किये साथ ही साथ यहाँ के


मूल निवासियों के महिलाओ के साथ में दुराचार भी करते थे और जो स्त्री ज्यादा सुन्दर होती थी उन्हें अपने पठरानी बनाने के लिए ले जाते थे इससे परेशान होकर यंहा के मूल निवासी अपनी स्त्रिओ को कुरूप दिखे इसलिए उनके शारीर में गोदना गुदवाना शुरू कर दिए ताकि किसी महिला को आर्य लोग अपने साथ न ले जाये ! यही धीरे धीरे सभी वर्गों और जाति के सांस्कृतिक धार्मिक और सामाजिक, वैज्ञानिक पक्ष में जुड़ गया

2.सांस्कृतिक पक्ष

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गोदना को शारीर का आभूषण माना जाता है और आदिवासी में इसका बहुत ही अधिक महत्व होता है कहा भी जाता है की मायके से कोई चीज यह चिन्ह लाया है तो वो है गोदना, कई लोग शौक से भी गोदना गुदवाते है देखने में अच्छा लगता है करके परन्तु अगर आदिवासी संस्कृति के अनुसार देखा जाय तो गोदना को बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है तथा आदिवासियों का मत है की जिनके ऊपर गोदना है उन पर बुरी छाया का प्रकोप नही पड़ता तथा गरीब का गहना माना जाता है क्योकि आज के महगाई में हम गहना नही दे सकते इसलिए गोदना रूपी गहना को दिया जाता है ऐसा मान्यता है , आदिवासी समाज में अपने टोटम चिन्ह गुदवाने की परम्परा है जैसे सूर्य,चद्र,गृह ,पेंड जिव जंतु आदि शोकिये लोग अपने नाम और सरनेम और प्रेमी प्रेमिका और आदि नाम बनवाते है

3.धार्मिक पक्ष
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गोदना के प्रति लोगों का ऐसा मान्यता है की यम राज अपने बेटा और उनकी पत्नी को यह आदेश किया की स्त्री और पुरुषो को उनके मान्यता के अनुसार चिन्ह अकित करना तांकि उनके पहचान किया जा सके और जिनके शरीर में गोदना है उन्हें मुक्ति मिल पायेगा और जिनके ऊपर गोदना का निसान नही पाया गया उन्हें मृतु के बाद सब्बल से गोदा जायेगा ऐसी किवदंती जन समूह में सुनने को मिलता है ,मुझे तो यह एक कहानी मात्र लगता है पर देवार और आदिवासी समाज में इस प्रकार का भ्रम आज भी सुनने को मिल जायेगा , और यह माना जाता है की जिनके शरीर में गोदना है उन्हें कोई भी जादू टोना आसानी से नही लगता और न ही कोई देवी प्रकोप जल्दी से लगता है

4.विज्ञानिक (चिकित्सा) पक्ष

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गोदना गोद्वाने के पीछे वैज्ञानिक करना यह है की अगर कोई 

बच्चा चलने में कोई तकलीफ हो रहा है नही चल पा रहा 


है तो उसको गोदना गोद्वाने से चलने लगता है, और गोदना से 




गठियाबात के इलाज के रूप में भी प्रयोग किया जाता है 

पोलियो जिसे बीमारी होने से रोकता है, रक्त संचार सुद्रिण करता 

है तथा रक्त से सम्बंधित बीमारियों को दूर करने में सहायक है




गोदना गोदने वाली जाति

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गोदना गोदने के लिए देवार जाति को अधिक दक्ष माना जाता है 

परन्तु गोंड जनजाति भी अपने परिवारों वालो का 

गोदना खुद गोद लेती है

गोदना के अन्य नाम दक्षिण भारत में इसे पच कुर्थू कहते है
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गोदना स्याही के प्रकार और बनाने का तरीका - गोदना गोदने की 

प्रथा पीढ़ी-दर पीढ़ी हस्तांतरित होती चली आ रही 

है । गोदना का कार्य समान्यत: देवार जाति के लोग करते हैं वैसे 

कई अन्य जातियों के लोग भी यह कार्य करते हैं 

पहले गोदना का कार्य परिवार की कोई बुजुर्ग महिला करती थीं

परंतु अब इसे व्यावसायिक तौर पर अपना लिया 

गया है। सरगुजा में मलार जाति की महिलाएं गोदना का कार्य 

करती हैंजिन्हें गोदनहारी या गुदनारी कहा जाता 

है। गोदना जिस उपकरण से बनाया जाता है


उसे सुई या सुवा 

कहा 

जाता है। गोदना गोदने के लिए तीन या इससे 

अधिक सुवा एक विशेष ढंग से बांधकर सरसों के तेल में चिकने 

किए जाते हैं। इन तीन या चार सुइयों के जखना 

नाम फोपसा या चिमटी कहा जाता है। काजर बनाने की विधि को 

काजर बिठाना कहते हैं काजर बनने के बाद इसे 

पानी में घोल लिया जाता है फिर शुरू होती है गोदना बनाने की 

शुरुआत। इसके तहत सबसे पहले चीन्हा बनाया 

जाता है। इस क्रिया को लिखना भी कहते हैं। बांस की पतली 

सींक 

या झाड़ू की काड़ी से गुदनारी गोदना गुदवाने 

वाले के शरीर पर विशेष आकृति अंकित करती है। तत्पश्चात 

गुदनारी अंग विशेष पर दाहिने हाथ की कानी उंगली 

से टेक लेकर अंगूठे और तर्जनी उंगली की सहायता से फोसा की 

मदद से गोदने गोदती हैं। गोदना पूरा होने के 

बाद 

काजर में डूबी जखनादार सुई से उसमें रंग भर दिया जाता है


। 

गोदना गुदने पर अंग में सूजन आ जाती है। इसे 

दूर करने गोबरपानी और सरसों का तेल का लेप लगाया जाता है। 

गोदना वाला शरीर का स्थान पके न इसके 

लिए 

हल्दी और सरसों का तेल लगाया जाता है। करीब सात दिनों में 

गोदे हुए स्थान की त्वचा निकल आती है और 

शरीर की सूजन खत्म हो जाती है। बैसे तो गुदना गुदवाने का 

काम 

साल भर चलता हैपरंतु ग्रीष्म ऋतु में 

गोदना 

गुदवाना उचित नहीं है। इस दौरान गोदना पकने का सबसे ज्यादा


 

खतरा होता है।


गोदना गुदवाने का सबसे अच्छा 

समय शीत ऋतु माना जाता है। गुदना प्रथा के लिए वे भिलवां 

रस

मालवन वृक्ष रस या रमतिला के काजल को तेल के घोल में 
फेंट कर उस लेप का इस्तेमाल किया जाता है।  बैगा आदिवासी मुख्यत जिन जड़ी-बूटियों का उपयोग करते हैं उनमें वन अदरकबांस की पिहरीकियोकंदतेलिया कंदवन प्याजवंश लोचनसरई की पिहरीकाली हल्दीवन सिंघाड़ाब्रह्म रकासतीखुरबैचांदीबिदारी कंद आदि प्रमुख हैं। इन्हीं जड़ी-बूटियों के सहारे बैगा युवक अपने शरीर की सुन्दरता के लिये गुदना गुदवाते हैं। बैगा युवतियां गुदना गुदवाने के लिये बीजा वृक्ष के रस या रमतिला के काजल में दस बारह सुइयों के समूह को डुबाकर शरीर की चमड़ी में चुभोकर गुदवाती है। खून बहने पर रमतिला का तेल लगाते हैं। इनकी ऐसी धारणा है कि गुदना गुदवाने से गठिया वात या चर्म रोग नहीं होते।
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गोदना के नुक्सान
कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के शरीर विज्ञान विभाग द्वारा किए गए एक शोध अध्ययन से यह पता चला है कि  (गोदना का वर्तमान रूप) के कारण त्वचा और हड्डी के कैंसर की संभावना बढ़ती है। इससे कई चर्मरोग पैदा होते हैं। फिलहाल गोदना से होने वाले कैंसर पर शोध कार्य जारी है।


यूरोपीय आयोग ने बकायदा एक स्वास्थ्य चेतावनी जारी कर रखी है और कहा है कि यूरोपीय देशो की सरकारें सुरक्षा के लिए कदम उठाए। दरअसल एक शोध में कहा गया है कि गोदने में उपयोग में लाए जा रहे रसायनों से संक्रमण का खतरा हो गया है। जो लोग अपने शरीर पर गोदना गुदवाने की योजना बना रहे हैं
उनसे यूरोपीय आयोग ने सवाल पूछा है कि क्या वे अपने शरीर में कार पेंट का उपयोग करना चाहते हैं।
 शोध में कहा गया है कि गोदने में उपयोग में लाए जाने वाले ज्यादातर रसायन औद्योगिक रसायन होते हैंजिनका उपयोग वाहनों के पेंट या फिर स्याही बनाने में होता है। इन रसायनों का उपयोग शरीर के किसी भी हिस्से में करना बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं है। सूई द्वारा शरीर पर किया जाने वाला टैटू यानी गोदना कुष्ठ रोग के फैलाव का प्रमुख कारण हो सकता है। कुष्ठ रोग के व्यापक प्रभाव वाले राज्यों में शामिल छत्तीसगढ़ को आधार मिल रहा है कि शरीर की त्वचा पर सुई चुभाकर उसके सहारे रंगों के प्रवेश के स्थायी निशान बनाने की कला गोदनाकुष्ठ रोग के जीवाणु के संवहन का प्रमुख कारण हो सकती है। आज भले ही लोग एक छोटे से आपरेशन या कुछ रसायनों से इसे मिटाने का दावा करते हैंलेकिन सच तो यह है कि गोदना मिटाने की कारगर विधियां अभी विकसित नहीं हुई हैं और वांछित उपचार के बाद भी इसके निशान जीवनभर बने रहते हैं।
 यूरोपीय देशों में लागू कानून के तहत टैटू बनाने वाले या गोदना गोदने वाले व्यक्ति को दस्ताने पहनना और अपनी सुई को जीवाणुरहित रखना जरूरी है। लेकिन इन देशों में गोदने के उपयोग में आने वाले रसायन को लेकर कोई कानून नहीं है। इसके अलावा यूरोपीय आयोग ने चेतावनी दी है कि पिछले साल शरीर छिदवाने से दो लोगों की मौत हो गई। शोध रिपोर्ट में कहा गया है कि जो लोग गोदना गुदवा रहे हैं या शरीर छिदवा रहे हैं उन्हें हेपेटाइटिस और एचआईवी का खतरा हो सकता है।
 यूरोपीय आयोग के शोध आयुक्त फिलिप बसक्विन का कहना है कि यह चेतावनी सुरक्षा की दृष्टि से जारी की गई है। उनका कहना है कि आयोग चाहता है कि जो लोग गोदना गुदवाना चाहते हैं या शरीर छिदवाना चाहते हैं वे सावधानी बरतें। यूरोपीय आयोग वैज्ञानिकोंडाक्टरों और गोदना व शरीर छेदने के काम में लगे लोगों की एक बैठक कर चुका है और सबने स्वीकार किया है कि इससे सवधानी बरतने की जरूरत है। आयोग 45 देशों के साथ मिलकर इस फैशन पर नजर रखने जा रहा है। त्वचा या स्किन पर किसी भी बाहरी स्थाई चीज़ को लगाना चिकित्सकों के माने तो नुकसान देह है

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जैसे इससे स्किन पर रिएक्शन हो सकता है , मेडिकल साइंस कहता है कि ब्लैक डाई का टैटू मानव शरीर की स्किन के लिए खतरनाक हो सकता है /
अगर पुरने सुई से गोदना बनाई जाती है तो टिटनेस या हैपेटाइटिस का खतरा बड़ सकता है , शराब पीकर गोदना नही बनाना चाहिए क्योंकि इससे खून बहते है और ब्लीडिंग जैसी समस्या बन सकती है
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गोदना बनाने के बाद नार्मल होने में करीब दो हफ्ते का समय लगता है इस दौरान उस जगह पर खुजलाना नही चाहिए / स्किन पर बुरा पड़ता है / और खास बात यह है कि गोदना वाले स्थान पर घाव न हो इस का ध्यान रखें /





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नोट:- कुछ जानकारीयां  विभिन्न इंटरनेट माध्यमो से प्राप्त जानकारी के अनुसार है 
प्रेषक 
आर्यन चिराम 
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आदि देवी देवता और वर्तमान देवी देवताओं में अंतर// adi devi devta me antar

Posted: 25 Jul 2020 09:50 PM PDT

नमस्कार दोस्तों आज मै चर्चा करने वाला हूँ की धर्म की शुरुआत कंहा से और कैसे हुआ तथा देवी देवताओ का विकास पर चर्चा आगे बढ़ाने से पहले आप लोगों को से कुछ जानकारिया साझा करना चाहूँगा 
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धरती के 4.6 बिलियन वर्ष इतिहास में जीवन का इतिहास इस प्रकार है-
  • पिछले 3.6 बिलियन वर्षों तक, सरल कोशिकाएँ (prokaryotes);
  • पिछले 3.4 बिलियन वर्षों तक, स्यानोबैकेटीरिया (cyanobacteria) प्रकाश संश्लेषण करता रहा;
  • पिछले 2 बिलियन वर्षों तक, जटिल कोशिकाएँ (eukaryotes);
  • पिछले 1 बिलियन वर्षों से, बहुकोशिकीय जीवन
  • पिछले 600 मिलियन वर्षों तक, सरल जन्तु;
  • पिछले 550 मिलियन वर्षों के लिए, द्विपक्षीय, सामने और पीछे के साथ जल जीवन रूपों;
  • पिछले 500 मिलियन वर्षों के लिए, मछली और आद्य-उभयचर;
  • पिछले 475 मिलियन वर्षों के लिए, भूमि वनस्पति;
  • पिछले 400 मिलियन वर्षों के लिए, कीड़े और बीज;
  • पिछले 360 मिलियन वर्षों के लिए, उभयचर;
  • पिछले 300 मिलियन वर्षों के लिए, सरीसृप;
  • 252 मिलियन साल पहले, त्रिलोबाइट्स, पर्मियन-ट्राइसिक विलुप्त होने की घटना में;
  • पिछले 200 मिलियन वर्षों के लिए, स्तनधारियों;
  • पिछले 150 मिलियन वर्षों के लिए, पक्षियों;
  • पिछले 130 मिलियन वर्षों के लिए, फूल;
  • 66 मिलियन साल पहले, क्रेटेशियस-पैलियोजीन विलुप्त होने की घटना में, पॉटरोसॉर और नॉनवियन डायनासोर।
  • पिछले 60 मिलियन वर्षों से, प्राइमेट्स,

  • पिछले 20 मिलियन वर्षों के लिए, परिवार होमिनिडे (महान वानर);
  • पिछले 2.5 मिलियन वर्षों के लिए, जीनस होमो (मानव पूर्ववर्तियों);
  • 2.4 बिलियन साल पहले, ऑक्सीजन की तबाही में कई ओरेबॉब्स को नष्ट कर देते हैं;
  • पिछले 200,000 वर्षों के लिए, शारीरिक रूप से आधुनिक मानव।
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  • ·        पाषाण ifuh 70000–3300 ई.पू.

    पुरापाषाण काल (Paleolithic Era)

    ·        २५-२० लाख साल से १२,००० साल पूर्व तक।

    मध्यपाषाण काल (Mesolithic Era)

    १२,००० साल से लेकर १०,००० साल पूर्व तक। इस युग को माइक्रोलिथ (Microlith) अथवा लधुपाषाण युग भी कहा जाता हैं।
    इस काल मेंअग्नि का आविष्कार हुआ था|
    नियोलिथिक युगकालया अवधिया नव पाषाण युग मानव प्रौद्योगिकी के विकास की एक अवधि थी जिसकी शुरुआत मध्य पूर्व[1] में 9500 ई.पू. के आसपास हुई थी,
  • सभ्यता का विकास लगभग 8500 और 7000 ईपू के बीच
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ऊपर जो जानकारिया आप लोगों से सेयर किया हूँ उनका जरुरत आगे पढने वाला है तो आप लोगों को सीधा ले चलता हूँ मानव जीवन की उत्पत्ति पर आज से लगभग ३००००० पूर्व पूर्व हुआ था माना जाता है तो धर्म की शुरुआत कैसे हुई होगी? सबसे पहले शुरुवाती जीवन में मानव जीवन का लक्ष्य केवल भोजन करना और अपनी सुरक्षा करना साथ ही प्रजनन कर अपने वंश वृद्धि करना मात्र था,
पूरा पाषण यूग में के समय वातावरण बहुत ही अधिक तीव्र से प्रवर्तित हो रहा था और मानव एक पशु की जिंदगी व्यतीत कर रहा था, जैसे बांकी  पशु समूह में रहते थे वैसे ही मानव भी समूह में रहते थे, सिकार और कंद मूल फल खा कर तथा प्रजनन कर और अपना जीवन व्यतीत करते थे, उन्हें भी ठण्डी और गर्मी का अहसास होता था 

पानी से बचने के लिए पेड़ो और गुफाओ का सहारा लेना शुरू किये तथा अपने सुमह के बांकी लोगों को इशारे और एक प्रकार के आवाज से सुचना पंहुचा पाने लगे जैसे ख़ुशी में तथा दुःख में तथा खतरे की स्थिति में एक ही प्रकार के आवाज निकाल कर अपने समूह के लोगों को सुचना पहुचने लगे फिर धीरे धीरे अलग अलग स्थिति के अनुसार अलग अलग प्रकार से एक ही आवाज को निकलने लगे फिर धीरे धीरे अलग अलग स्थिति के लिए अलग अलग आवाज और शब्द निकालने लगे ,जैसे ख़ुशी के लिए एक अलग प्रकार का आवाज और एक अलग प्रकार की गतिविधि किया जाने लगा, फिर दुःख में आंसू निकालकर एक अलग प्रकार का आवाज और गतिविधि करने लगे, फिर सिकार न मिलने पर एक अलग प्रकार के भावना के साथ एक भिन्न प्रकार के गतिविधि करने लगे, और जिस दिन सिकार मिल जाता उस दिन सभी गुरप में मिलकर एक अलग प्रकार का गतिविधी कर उस खुसी को व्यक्त करने लगे,

,तथा दुःख को व्यक्त करने के लिए अलग प्रकार का शारीरिक गतिविधि और अलग प्रकार का  भावना व्यक्त करने लगे साथ ही अलग प्रकार का आवाज निकालने लगे और जब खुश होते थे तो अब समूह में मिलकर शारीरिक गतिविधि करते थे और समूह में एक अलग प्रकार के एक साथ आवाज निकालते थे व सभी समूह में अपने खुसी को व्यक्त करते थे ,,,दरअसल इसे भाषा का शिशु काल या भ्रूण काल कहा जा सकता है,,,,,समय बीतता गया और जीवन यापन और वातावरण परिवर्तित होता गया समय के साथ कई सारी गतिविधि बदल गई लाखो वर्षो बाद उनकी जीवन पद्धति 


कुछ ऐसी हो गई थी जैसे समूह में रहना और ठण्ड से बचने के लिए इकठ्ठे रहना भोजन को मिलकर खाना और समूह में सिकार करना आदि ,,,,,,,कुछ वर्षो बाद इनमे एक और भावना जागृत हो गई थी जिसे हम आज के यूग में आशा, विश्वास ,उम्मीद या भरोसा कह सकते है,,वे अपने समूह के लोगो में विश्वास करने लगे 


की ये हमे नुक्सान नही पहुचायेगा और और वे सब मिल जुल कर कंदराओ में रहना शुरू कर दिए और उम्मीद भी जागृत होने के कारण उन्हें एकात दिन अगर सिकार और फल फुल नही मिल पाता था तो ये उम्मीद कर लेते थे की अगले रोज सिकार या खाने को जरुर मिलेगा


धर्म का भ्रूण काल
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कुछ वर्ष पश्चात  इसी यूग में एक और भावना का भी विकास हो गया था आदिमानवो में वो है डर उन्हें अब डर भी होने लगा था की कंही अन्य जानवरों द्वारा नुक्सान न पहुचाया जाए इसलिए वे पेड़ो के ऊपर और गुफाओ में रहने लगे तथा बरसात से डरने लगे, गर्मी से डरने लगे रात से डरने लगे,ठण्ड से डरने लगे जानवरों से डरने लगे मौसम परिवर्तन से डरने लगे, 


भूकम्प ज्वालामुखी से डरने लगे, और बहुत सारी चीजे से वे डरने लगे अब जानते है डरने के कारण डरने का कारण पानी गिरने पर कई बार पेड़ पौधा गिर जाता था जंहा वे रहते थे जिससे कई बार कई उनके समूह के लोग मारे जाने लगे जिससे वे बरसात और पानी से डरने लगे,कई बार उनके सदस्य बिजली गाज के चपेट में आकर मृतु को प्राप्त हो जाते थे,


भुकम्प्नो से भी डरने लगे क्योकि उस समय भू स्लेट अपना स्थिति बदल रहा था कई महाद्वीप बन रहे थे तो वे कंदराओ और गुफाओ में रहते थे जिससे उनके उप्पर पत्थर गिर जाते थे जिनसे उनके समूह के कई सदस्य दब कर मर जाते थे जिससे वे भू स्खलन और भूकम्प से डरने लगे व ,गर्मी के दिनों पर उन्हें पानी के कमी के 


कारण भी उनकी कई सदस्य अपने जान से हाथ धो बैठे इसलिए वे प्राकृतिक ऋतू परिवर्तनों से डरने लगे, कहने का तात्पर्य ये है की जिससे उनको व् उनके समूह के सदस्यों को खतरा था वे सभी चीजो से डरने लगे,कई जंगली जानवर जो रात में सिकार करते थे उनसे भी डरने लगे उनसे

बचने के लिए गुफाओ में रहने लगे ,आग का खोज पूरा पाषण यूग में कर हो गया पर उनका उपयोग करना नही सीखे थे जिनके कारण आग से भी डरने लगे क्योकि आग में भी उनके कई सदस्य जलकर मर गये वे आग पर काबू पाना नही सिखे थे और आग को भयंकर दानव समझकर डरते थे,


,,ऐसे करते करते कई हजार वर्ष गुजारे फिर ,,,उन सभी चीजे और प्राकृतिक जिनसे उन्हें खतरा था ऋतू जिनसे उन्हें खतरा था उनसे डरते तो थे ही पर अब वे इन सब से भी बड़ा कोई शक्ति है जो ये सब करता है और करवाता है ऐसा विश्वास करने लगे इसे
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 धर्म का सही स्टार्ट अवस्था कहा जा सकता है तथा वे सिकार में जाने से पहले उस शक्ति को मन से याद करते थे की हमे सिकार मिले जाए,


रात होता था तो भी उस शक्ति को याद करते थे की हमे बचाकर रखना ,आदि यह समय था पूरा पाषण यूग का उतरोतर और  मध्य पाषण यूग का शुरू उन्हें एक शक्ति का अहसास हो गया था की इस सब से भी बड़ा कोई शक्ति है जो ये सब खेल करवाता है समय बीतता गया और मध्य पाषण यूग आ गया मध्य पाषण यूग में लोग पत्थरो का नुकीले औजार का प्रयोग करना अछे से सिख गये वैसे पूरा पाषण यूग से पत्थरो का


ओजार प्रयोग कर रहे थे परन्तु मध्य पाषण यूग में पत्थरो का ओजार अछे से प्रयोग करना सिख चुके थे और अब


बात करते है उनके विश्वास और धर्म की जब वे अपना पत्थर के औजार नही देख पाते थे तो तिलमिला उठते थे और जब उन्हें मिल जाता था तो उन्हें बहुत ख़ुशी मिलती थी
 और अपने खुशी को व्यक्त करने के लिए अलग प्रकार के शारीरिक गतिविधि करते थे और एक अलग प्रकार के आवाज निकालते थे,पहले के अपेक्षा उनके शरीर भी कांफी बदल गये थे और वे चार पैरो में न चलकर दो पैरो में चलना सिख चुके थे,

और उनका प्रकृति शक्ति पर विश्वास और अधिक होने लगा था समय बीतता गया और कई सारा प्राकृतिक परिवर्तन और 


जलवायु परिवर्तन हुआ और धीरे धीरे मध्य पाषण यूग के उतरोतर और नवपाषाण यूग के आगमन में मानव पुरे तरह से रहना और खाना और औजारों का उपयोग करना सिख गया था, और इनकी प्राकृतिक शक्ति पर विश्वास और गहरा हो चूका था अब वे प्राकृतिक चीजे जिनसे उनकी डर कम होती थी उन्हें उस शक्ति का

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स्वरूप मानने लगे थे ,जैसे उनके औजार जिनसे वे शिकार करते थे तथा खुद की सुरक्षा करते थे उन्हें उस शक्ति का स्वरूप मानकर श्रद्दा रखने लगे जिस पेड़ में रहकर अन्य जंगली जिव से खुद की रक्षा करते थे उस वृक्ष पर श्रद्दा रखना चालू कर दिए जिस गुफा में वे रहते थे रात बिताते थे उनपर उस शक्ति का स्वरूप मानना शुरूकर दिए, इसी यूग में वे आग का उपयोग करना सिख चुके थे इसलिए वे आग को भी उस शक्ति का स्वरूप समझकर उनपर श्रद्दा रखना शुरू कर दिए, वे रात से डरते थे रात को सूर्य की रोशनी दूर कर देती थी जिससे उनको लगता था की उनकी रक्षा वह शक्ति करता है इसलिए सूर्य पर भी श्रद्दा 


रखना शुरू कर दिए और पानी पर भी श्रद्दा करना शुरू कर दिए थे इस नवपाषण यूग में यह बात तो स्पस्ट हो गया की लोग उन सभी वस्तु या प्राकृतिक चीजे जिनसे उनकी रक्षा होती थी उन सब को उस अविजयी शक्ति का स्वरूप मानकर उन पर श्रद्दा करना पूरी तरह सिख गए थे,,,, "एक बात मै स्पस्ट करना चाहता हूँ की मै केवल धर्म पर लेख लिख रहा हूँ तो पूरा पाषण काल में और क्या क्या हुआ क्या क्या सीखे या 


मध्य पाषण काल में और क्या क्या अन्य चीजे सीखे या नव पाषण काल में और क्या क्या विकास किये इन पर मै प्रकाश नही डाल रहा हूँ मै केवल धर्म की उत्पत्ति पर प्रकाश डाल रहा हूँ और आगे के यूगो (कास्य,लौह,) में भी केवल धर्म पर ही प्रकाश डालूँगा
" और नवपाषण यूग के उतरोतर में और कास्य यूग के प्रारम्भ में मानव अपने प्राकृतिक श्रदेय को अपने मन पसंद खाद्य सामग्री और 
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अन्य चीजे अर्पण करना सिख गये थे पर अभी भी लोग प्राकृतिक निर्मित चीजो पर ही अपना श्रद्दा रख रहे थे जैसे कोई शिकार में जाने से पहले अपने श्रदेय के पास कुछ समय के लिए एकत्रित होना और सिकार में जो भी वस्तुए प्राप्त हो उसे कुछ मात्र में अपने श्रदेय को अर्पण करना शुरू में केवल खाद्य सामग्री अर्पित की जाने लगा,,, फिर  कास्य यूग में वे  धीरे धीरे अपने ओजार या अन्य उपयोगी चीजे अर्पित की जाने 


लगी इस यूग के आते आते इंसान कृषि और पशु पालन सिख चूका था, तो अछे फसल के लिए अपने प्राकृतिक शक्ति को प्रसन्न करना विनती करना सिख चुके थे तथा वे औधोगिक काल की और और उन्नति काल की और अग्रसर हो रहे थे साथ ही साथ उनकी उस अमूर्त रूप को मूर्त रूप देने की परम्परा का भी शुरुआत हो 


चूका था साथ ही लिपि और शैल चित्रों का भी प्रयोग और और संकेतो का भी प्रयोग का आरंभ हो चूका था और लौह यूग के आते आते कई सभ्यताए और निर्मित हो चुकी थी जो पहले के अदिमानवो से कांफी सभ्य और एक जगह बस कर नगरीय जीवन बिताने के लिए पूर्ण रूप से तैयार हो चुके थे, और इन्ही प्राकृतिक का मूर्त रूप का एक अच्छा उदहारण सिंदु घाटी सभ्यता का पशुपति  मिश्र की पिरामिंड और मेसोपोटामिया, 

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माया नगर, हड्ड्प्पा सभ्यता,सुमेर सभ्यता,में इनके कई उदाहरण देखने को मिलता है अब मानव परम शक्ति का सवरूप प्राकृतिक में न देखकर उनको मुर्हत रूप देने में लग गया था, और इन्ही सभ्यताओ के अंत तक व्यक्ति पूर्ण रूप से एक अविजयी शक्ति के स्वरूप को आत्मसाध कर लिया था परन्तु उन्हें मुहूर्त रूप देने में वे अपने कल्पना के अनुसार उस अविजयी शक्ति को मानवरूप देना एक प्रकार का अपने कल्पना का मानवीय रूपांतरण था,


बल्कि इससे पहले पानी में अपने श्रदेय को देख रहे थे सूर्य में पेड़ में प्राकृतिक निर्मित वस्तुओ में देख रहे थे उस शक्ति को फिर अचानक कैसे उन्हें मानवीय रूप में साकार और मान लिया गया फिर 

लोह युग के मध्य काल में धीरे धीरे अपने श्रदेय को प्रसन्न करने के लिए तरह तरह का पूजा शुरू हो गया और अपने इच्छा हेतु कामना और चुकी यह सभ्यता के
 एक विस्तृत काल बाद यह लोह मध्य काल आया था इसे धर्म का जवानी रूप मान सकते है  इस यूग के आते आते अपने श्रदेय को प्रसन्न करने के लिए तरह तरह का उपाय किया जाने लगा चूँकि भाषा भी कांफी विस्तृत और सभ्यता भी कांफी विकसित हो चूका था और मानव का विवेक भी कांफी परिवर्तित हो चूका था परन्तु धर्म के प्रति अंधविश्वास के चलते वे अपने श्रदेय को प्रसन्न करने हेतू फल फुल और मानव बलि ,


पशु बलि की शुरुआत हो गया था अब धर्म में कई प्रकार की कुरीति धीरे धीरे सामिल होते गया और नवपाषण यूग के आते आते ये अंध विश्वास कांफी फल फुल गया इस यूग में जंहां शिक्षा का एक नया युग प्रकाश फैला रहा था तो अंधविश्वास यूक्त धर्म भी अपना वर्चस्व कायम करने हेतु तरह तरह के उपाय करने लगे थे ,,कोई भी निर्माण कार्य में नर बलि पशु बलि तंत्र


विद्या इस यूग का एक महत्वपूर्ण बिंदु रही .इस यूग में तंत्र विद्या और अन्धविश्वास कांफी बड़ा साथ में टोना टोटका और पूजा पद्धति में पूरी तरह परिवर्तन आ गया,,अब यहां से दो नया मोड़ निकला चुकी यह शिक्षा का प्रचार प्रसार पश्चात्य देशो में होने लगी वही अपने भारत में कल्पना शील संसार की विकास जोरो पर रही ,नव लोह यूग में लोगो के दिलो दिमाग में धर्म घर कर गया था अब आते है नये धर्म की काल्पनिक संसार मे
काल्पनिक संसार
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वैदिक काल में अनेक ग्रंथो और पुराणों और वेदों की रचना की गई साथ ही सभी लेखो अभिलेखों को लिपि बद्ध किया जाने लगा और इस तथा यह यूग सभ्यता के आने के लगभग २००० ई पु के बाद वैदिक काल का आरंभ हुआ और इस यूग में बलि प्रथा


को और बल मिला और इस यूग में पुजा पद्धति पूरी तरह बदल गई पाली संस्कृत और मंत्रो द्वारा देवताओ को प्रसन्न करने हेतु यज्ञो हवन की निर्माण होने लगा, और पूजा में जो प्राकृतिक का पूजा किया जाता था उनके स्थान पर मुर्हत रूप देकर इंसानों जैसा सवरूप का कल्पना किया जाने लगा तथा उनका 


नाम करण किया गया इसी वैदिक काल का ही देन आज के इंद्र ब्रम्ह विष्णु शंकर आदि देव है तथा दान दक्षिणा और बलि प्रथा और सामाजिक वर्ण वयवस्था इसी काल्पनिक या वैदिक काल का ही देन है जो पुरे भारत को सामाजिक व अन्य क्षेत्रो में कार्यो के आधार पर विभाजित कर कई नये कुप्रथा का आरंभ कर दिया गया जो वैदिक काल के कई वर्षो तक हजारो गरीब और निचले वर्ण के लोगों को कुचलने का कार्य किया,और निचे वर्ण के लोगों को शिक्षा से दूर रखा गया ,

,इसी काल में कई वर्षो बाद अनेक काल्पनिक कथाओ का लेखन हुआ रामायण महाभारत और और अन्य कथाओ का जोरो से प्रचार प्रसार होने लगा जिन्हें हम वास्तविक मानकर चलने लगे जिन्हें आज हम वास्तविक मानने लगे जो आज से महज लगभग २५०० से १५०० वर्ष के आस पास माना जाता है 
वर्तमान देवी देवता और आदि देवी देवता में अंतर

प्राकृतिक, sabhyata, सभ्यता, देवी देवता, धर्म, आर्यन चिराम, prakritik, devi devta, dharm, aaryan chiram, हल्बा समाज, halba samaj,प्राकृतिक, sabhyata, सभ्यता, देवी देवता, धर्म, आर्यन चिराम, prakritik, devi devta, dharm, aaryan chiram, हल्बा समाज, halba samaj,धर्म का विकास हम जब से मान सकते है जब से एक होमोसेपियंस का विकास हुआ अर्थात जब से उन्हें अपने को डर और भय और आशा और अन्य भावना का विकास हुआ तब से धर्म का विकास माना जा सकता है जैसे मैंने ऊपर भी स्पस्ट कर दिया था की कैसे धर्म का विकास हुआ होगा करके, और कबीर दास जीने बिलकुल सही व्याख्या किया था की भय बिनु होई न धर्म से प्रीती जब से भय की समझ आया तब से धर्म की शुरुआत माना जा सकता है 


और आदिमानव पहले उन सभी चीजो से डरता था जिनसे उन्हें खतरा था फिर धीरे धीरे जिनसे उनको खतरा था, तथा जिनसे वे उन खतरों से लड़ सकते थे उनकी पूजा करने लगा और धीरे धीरे वे उन सभी प्राकृतिक चीजे जिनसे उन्हें कुछ न कुछ प्राप्त होता है उन पर श्रद्दा रखने लगा और वे धीरे धीरे उन सभी प्राकृतिक चीजो से भी परे एक असीम व् अविजयी शक्ति की कल्पना करने लगे और धीरे धीरे उसी

असीम शक्ति को वे प्राकृतिक वस्तुओ में देखने लगे और धीरे धीरे पुरे प्राकृतिक को श्रदेय की तरह मानने लगा और सभ्यता के आने से कुछ वर्षो पहले तक वे पानी,अग्नि,सूर्य,चाँद,पेड़,पौधे और ,पत्थरो का, औजारों का पूजा करना और खाद्य प्रदार्थ अर्पण करना शुरू कर चुके थे तथा सभ्यता के अस्तित्व में आने तक वे प्राकृतिक को मूर्त रूप में देना शुरू कर चुके थे सिंदु सभ्यता की पशुपति का मूर्ति उन्ही का एक सवरूप है और इस प्रकार प्रकृति से
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आदमी धीरे धीरे काल्पनिक की ओर आते गया क्योकि यह मानव का विकासक्रम था और साथ ही प्रकृति भी अपने सवरूप में कई परिवर्तन कर रहा था और सभ्यता धीरे धीरे विस्तृत होते गया और मनुष्य का मस्तिष्क भी धीरे धीरे विकसित होते गया और उनकी कल्पना और सोचने समझने की क्षमता में अदितीय परिवर्तन हो चूका था वैदिक काल के आते आते वे एक 


पूर्ण सोचने समझने और क्या अच्छा और क्या बुरा है यह जानने में सक्षम हो चूका था ,अगर हम आदि देवी देवता और प्राकृतिक पर श्रदेय का असली शुरुआत माने तो नवपाषण यूग को मान सकते है जो वर्तमान से लगभग  ५००००० से १०००० ई पु मान सकते है और जब से सभ्यता आया लगभग ८०००से ३००० तक हम मूर्त रूप या मूर्ति पूजा का अस्तित्व मान सकते है और वर्तमान जो देवी देवताओ को नाम करण किया गया यह सब वैदिक काल में आज से लगभग ३००० से १२०० ई पु माना जा सकता है 


और इन सब का चित्र और फोटो का शुरुआत और उनको प्रसन्न करने का इतिहास जायदा पुराना नही है आज से लगभग २०० साल मान सकते है  आज से लगभग १७१ साल पहले राजा रवि दस वर्मा का जन्म त्रिवंपुरम किलिमानुर राजमहल में लगभग २९ अप्रेल १८४८ में हुआ जिन्हें आधुनिक देवी देवताओ के तैलीय चित्रों का जनक माना जाता है 

ठीक ऐसे ही गणेश पूजा का भी इतिहास आज से लगभग १५० साल पुराना है सन 1893 से गणेश पूजा का शुरुआत हुआ ,दुर्गा पूजा का इतिहास लगभग 1950 -५५ के आस पास देखने को मिलता है 
हमारे जीवन में आदि देव के स्थान पर वर्तमान देवी देवता कैसे आती गई ?
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ऊपर पृत्वी के उत्पत्ति से मानव उत्पत्ति और युगों का शुरुआत और साथ में सभ्यता का शुरुआत बताया गया है समय के अनुसार हम सभी के पूर्वज जैसा की ऊपर बताया गया है जैसे जैसे विकास और समझ में विकास होता गया वैसे वैसे प्राकृतिक को अपने श्रदेय मानते गये और धीरे


धीरे उन्ही को मूर्त रूप देते गए उसके बाद उनकी कल्पना में वे देवी शक्ति का मानवीय रूपांतरण और कल्पना करने लगे तथा धीरे धीरे उनका मानवीय नामकरण भी करने लगे फिर धीरे धीरे अपने कल्पना के अनुसार उनका शक्ति वर्णित करते गये और सब की आरती वगैरा शुरू हुआ अब आते है ,,वैदिक काल के पश्चात सामाजिक वर्ण व्यवस्था लागु कर दिया गया काम के अनुसार उनकी सम्प्रदाय बना कर एक वर्ण शुद्र को सभी चीजो से वंचित रखा गया और उन्हें


तरह तरह से प्रताड़ित किया जाने लगा उन्हें मंदिरों में प्रवेश से निषेध रखा जाने लगा उन्ही के विरोध में शुद्र मंदिरों में प्रवेश हेतु प्रयत्न करने लगे व कांफी विरोध पश्चात भी उन्हें कई अधिकारों से वंचित रखा गया परन्तु वे इन देवी देवतो को लगभग १७वि सताब्दी में अपना मानना शुरू कर दिए थे समय बीतता गया और १९वि शताब्दी आते आते पूरी 


तरह अपना चुके थे तथा जो वैदिक धर्म से जिनको लाभ हो रहा था उन्हें पता हो गया की सुद्रो से धर्म के नाम पर अछि खाशी कमाई की जा सकती है स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सभी को कोई भी धर्म मानने की छुट गई थी तो कई वैदिक धर्म चार्य जिन्हें आभास हो गया था की सुद्रो को मंदिरों से दूर रखने में नही अपितु मंदिर में प्रवेश देने से जायदा फ़ायदा है वे सुद्रो को मंदिर में प्रवेश देने के लिए सहमत हो गये और धीरे धीरे पूजापाठ के नाम से दान दक्षिणा मांग कर यंहा के आदिवासी और निचे तबके के लोग जिन्हें ये


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प्रपच्कारी शुद्र कहते थे उनको लूटना चालू हो गया धर्म और पाखंड के नाम से फिर अनेक प्रकार से धर्म के नाम से लुट पाट किया जाने लगा गृह कलेश और शनी दशा मुहूर्त आदि आदि के नामो से और लगभग १८ वी १९ वी सताब्दी में ही ये हमारे परम्परागत त्योहारों में भी इनके पूजा पद्धति लागु हो चूका था नारियल अगरबत्ती गुलाल आदि तो हम कह सकते है आज से लगभग २ पीढ़ी पहले से 

ही यह भगवान जो वर्तमान में मान रहे है हमारे तीज त्योहारों में और हमारे आचार विचारो में प्रवेश किया है और बहुत सारा विचार है जिन्हें कभी अन्य पोस्ट में दर्शाउंगा आज के लिए बस इतना ही क्योकि लेख बहुत लम्बा हो चूका है और अंत में बस यह कहना चाहूँगा यह जो जानकारी है लगभग १० से १५ दिनों तक विभिन्न मुद्दों और सोर्स से प्राप्त जानकारियों के आधार पर निरिक्षण और अवलोकन के पश्चात लिखा हूँ परन्तु फिर भी यह बात कहना चाहुगा 


अनेक माध्यमो से लिए जब काल गणना देखा गया तो सभी में समय अलग अलग था तो केवल काल गणना में भिन्नता हो सकता है परन्तु जैसे एक धर्म की उत्पत्ति हुआ वह बहुत ही रोचक और रोमाचक रहा केवल धर्म की उत्पत्ति कैसे हुआ होगा इसपर अपना फोकस रखे कालगढ़ना आगे पीछे हो सकता है और मै कौन कौन सी धर्म की उत्पति कब कब हुआ यह नही बता रहा हूँ


क्योकि मुझे धर्म की उत्पति के बारे में चर्चा करना था उनके प्रकारों और उनके बन्ने के कारण पर चर्चा करूँगा तो और बहुत लम्बा हो जायेगा टोपिक इस लिए ये लेख यही विराम करता हूँ 
आपको लेख कैसा लगा जरुर बताये आगे एक पोस्ट और आने वाला है देवता होता है की नही इस टोपिक पर आप अपना विचार कमेट बोक्स में लिखे और कुछ जरुरी जानकारी जो आप पढना चाहे तो निचे लिंक के माध्यमो से पढ़ सकते है 


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आपका अपना
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पृथ्वी का इतिहास


2. 

पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व का इतिहास


3. 
4. 

सिंधु घाटी सभ्यता


5. 

वैदिक सभ्यता


6. 

आर्य प्रवास सिद्धान्त



8. 

सनातन धर्म



10. 

सुमेर सभ्यता


11.

विश्व इतिहास World History


12.

सभ्यता


13. 

मानव का विकास



15.

पाषाण युग

  




नौकरी देखकर नही इंसान देखकर शादी करें // naukri dekhkar nhi insaan dekhkar shadi Karen

Posted: 25 Jul 2020 09:34 PM PDT


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दोस्तों नमस्कार आज मै जिस बिंदु पर बात करने वाला हूँ उस बिंदु का नाम है शादी के लिए रिश्ता और उचित समय और शादी के पहले होने वाली समस्याओ के बारे में बात करने वाला हूँ की किस प्रकार की समस्याओ का सामना करना पड़ता है? शुरू से बात स्टार्ट करता हूँ
जब हम पढ़ते लिखते है तब ये सोचते है की पहले अपने पढाई कर ले उसके बाद बाद में शादी ब्याह को देखेंगे वैसे भी घर वाले शादी करवा देंगे 

करके या यु कहे हम अपने पढाई पर फोकस करते है 12वी के आते आते लगभग 18 साल या उससे जायदा भी हो जाता है फिर भाग दौड़ भरी जिंदगी चालू होता है जॉब के पीछे और कॉलेज करने साथ में हम अपने भविष्य को लेकर चिंतित रहते है क्या करेंगे क्या नही करेंगे अपना लाइफ सेक्योर कैसे हो इस पर लगे रहते है पीजी,व्यवसायिक 


पेपरों की तेयारी करते करते हम लगभग 23-25 वर्ष, के हो जाते है फिर एकात जॉब लग जाता है 


तो फिर ये सोचते है की अभी तो जॉब लगा है एक दो साल फिर शादी करूँगा ये सब करते करते लगभग 28 से 30 वर्ष हो जाता है अब चालू होता है असली मारा मारी
जब लड़की ढूँढना चालू करो तो कई दिक्कत शुरू होता है लड़की ढूँढना मतलब रेत में गुम सुई ढूँढना है तो चलो बात करते है अपने समाज में लड़की ढूंढने में जो दिक्कत होती है वो कुछ 
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इस प्रकार है ,
1.      किसी के यंहा लड़की देखने जाओ तो पहला प्रश्न लड़का पीता तो नही है न ?
2.     लड़का क्या करता है नौकरी काम धंधा?
3.     खेत खार कितना है ?
4.     कितने भाई बहन है ?
5.     मॉस मछली खाता है की नही ?
6.     कितना पढ़ा लिखा है ?
7.     कौन से गोत्र है, मामा गोत्र, गोतामी किसके साथ खाते हो ?
आदि आदि प्रश्नों के बाद आता है उनका जवाब देने की नौबत तो उत्तरों पर चर्चा करते है, पीते खाता है की नही ये प्रश्न तो बिलकुल जायज है पर जो पिता खाता भी होगा वो क्यों बताएगा की मै पिता खाता हूँ, क्योकि लड़का को भी पता है की अगर मै सही बताया

तो रिश्ता कैंसल तो वो लड़की देखने गया है तो वो क्यों बताएगा की मै लेता हूँ करके बोलता है बेचारा की थोडा थोडा लेता हूँ करके शादी हो जाता है फिर पता चलता है की केवल लेता नही धुआधार लेता है तो अब शादी तो हो गया तो क्या कर सकते हो, कई बार तो ऐसे भी देखने को मिलता है की जो पुछ रहा होता है पीता है की नही वही खुद पी कर पूछते रहता है ये सब वाकया भी अविस्मर्णीय है खैर, कोई भी माता पिता नही चाहेगा की उनकी बेटी कोई खाने पिने वाले के यंहा जाए इस लिए ये पूछना जायज


हो जाता है और आज कल के माता पिता को तो मै सुपर माता पिता मानता हूँ क्यों आगे बताऊंगा "अब आगे प्रश्नों पर चर्चा करते है अगला प्रश्न आता है लड़का क्या करता है ? ये प्रश्न भी सही है लड़का बेरोजगार है की रोजगार है और कौन से जॉब में है? हर माता पिता का ये सपना होता है की उनके बेटी जंहा भी जाय वंहा खुश रहे और अछे खानदान में जाए और अछे घर जाए पर आज कल ये उद्देश्य बना लिए है की उनके बेटी कोई अछे नौकरी वाले के यंहा जाए इसलिए मै पहले ही बोल दिया था की आज कल के माता पिता सुपर माता पिता है आज कल के लड़की के माँ पिता ये नही देखते की लड़का कैसा है उनके परिवार कैसा है वो ये देखते है 

की लड़का नौकरी करता है की नही अगर कोई बिना नौकरी वाला आएगा देखने तो बोलेंगे सोच कर बतायेगे और उसके बाद कोई जॉब वाला आएगा तो पहले वाला आलरेडी रिजेक्ट हो जाता है आज कल के माता पिता भले ही उसकी बेटी 12वी पास हो पर दामाद चाहिए नौकरी वाला,और कोई लड़की नौकरी वाली हुई तब तो मत पूछो उनका डिमांड अपने समकक्ष 


नौकरी वाला नही ग्रेड 1 ऑफिसर चाहिए ये 80% लोगो का सोच ऐसा हो गया है उतने पर भी पुलिस वाले को नही देंगे, आर्मी वाल्व को नही देंगे पता नही लोगों की क्या मानसिकता बन गई है, पुलिस वाले दारू पीते है आर्मी वाले भी पीते है, आर्मी वाले ड्यूटी साइड फिर मेरी बेटी कहा रहेगी ? मेरे प्रिय बंधुओ जो लोग ऐसा सोचते हो न तो सबसे घटिया सोचते हो,


सभी पुलिस वाले नही पीते कोई कोई पीते है उसके कारण पुरे पुलिस को बोलना गलत है और ये आपका गलत धारणा है और आप पूर्वाग्रह से गर्सित है मै ऐसे भी पुलिस वालो को जानता हूँ जो दारू को हाथ भी नही लगाते एक के कारण पुरे डिपार्टमेंट को बोलना गलत है,ये बेचारे लोग हम लोगों के खुशी के लिए छुट्टी तक नही लेते और हम उनके बारे में ऐसा सोच रखते है भले वे थोडा कड़क होते है पर रोज रोज आप भी अगर उनके जैसे माहौल में रहते तो बेसक आप भी उनके जैसा कड़क होते और


बेचारे आर्मी वाले हमारे अमन शांति के लिए अपना घर परिवार छोड़कर बॉडर पर जागते है उन्ही के बदौलत हम चैन की नीद सोते है और जब उनको अपना बेटी देने की बात आती है तो आर्मी वाले पीते है सोचते हो उन्ही पिने वालो के बदौलत हम आज अपने घर में चैन से सोते है, मेरे बंधू अगर वे पीते है और पड़े रहते है तो देश की रक्षा कौन कर रहा है, नही पीते नही बोल रहा हूँ 


पीते होंगे पर पीकर कंही नाली में तो नही पढ़े रहते या घरो में झगड़े तो नही करते हम आपके जैसे, आप हम ख़ुशी से पीते है पर वे मज़बूरी में पीते है आप भी जब माइनस 45 डिग्री बिना पिए 1 घंटे शर्द बर्फ में रह कर देखिये पता चल जायेगा क्या होता है आर्मी की जिंदगी, भाइयो जो हमारे लिए इतने करते है कम से कम उनके बारे में गलत धारणा मन से निकाल कर उनको बेटी देने में कोई मना मत करियेगा सर मेरा आप लोगो से हाथ जोड़कर करबद्ध निवेदन है, अब बात करते है


कोई लड़की जॉब में है तो उनको हसबेंड चाहिए उनसे बड़े जॉब वाले ऐसा क्यों? अगर लड़की शिक्षक है वर्ग 1 और उनको शिक्षक वर्ग 2 शादी करना चाहे तो लड़की नही करना चाहती ऐसा क्यों आप भी जॉब में वो भी जॉब में पर क्या मानसिकता बना के रखे रहते है पता नही क्या सोचते है इज्जत कम हो जायेगा सोचते है की दुनिया को मुह दिखाने के लायक नही रहेंगे सोचते है पता नही,और अपने से बड़े जॉब वाले आ गये तो उनको रिश्ता दे देते है मैंने कई ऐसा केस देखे है, और मैंने तो कई ऐसे भी केस देखे है लड़की शिक्षक वर्ग3 है

और उनको लड़का चाहिए ग्रेड 1 ऑफिसर,उनके लिए वर्ग 3 वर्ग 2 वर्ग 1 कुछ नही लगते तो ऐसे लोगों को धिक्कार है मेरा और ऐसे लोगो को मै लालची ही मानता हूँ ऐसे लोगो के लिए मेरा विचार है की वे खुद को इतना काबिल बनाये की वे खुद ग्रेड 1 ऑफिसर बने फिर उनको खुद के बराबर ग्रेड 1 ऑफिसर मिलेगा, "लोग अपनी योग्यता कम रखते है और ख्वाब बड़े बड़े"


ये महज लालची प्रवृति है ऐसे लोग कभी न कभी धोखा अवश्य खाते है और खाना भी चाहिए तभी तो सबक मिलेगा
  और मै सभी भाइयो और बहनों से निवेदन करना चाहूँगा की आप कभी भी शादी करते हो तो अपने समकक्ष योग्यता या जॉब वाले को शादी कीजिये कभी कोई दिक्कत नही आएगी और मेरा राय ये है की नौकरी वाले के पीछे नही एक अछे इंसान से शादी कीजिये , कई लोग नौकरी वाले को शादी करने के चक्कर में खुद की जिंदगी ख़राब कर चुके है, आप ऐसे न करे,


मै ये नही कह रहा नौकरी वाले अछे नही होते है, बल्कि मै ये कह रहा हूँ की जो नौकरी नही कर रहा है वो भी आपको खुश रख सकता है, बर्ते इंसान अछे होने चाहिए, एक घटना बता रहा हूँ बिलकुल सही घटना है ये घटना है महासमुंद की एक मैडम है वर्ग 1 में उनके लिए रिश्ते आया उनके समकक्ष वर्ग 1 वाले पर उनके घर वाले सोचकर बताएँगे बोले उसी दौरान एक mbbs डोक्टर उनको देखने आ गया घर वाले उनको देंगे बोले और दे दिए शादी बियाह भी धूम धाम से हो

गया शादी के बाद 1 माह बाद दोनों का तलाक भी हो गया दोनों एक दुसरे के साथ अर्जेस्ट नही कर पाए उनका दिमाग प्रोफेशन अलग और इनका अलग अभी तक मैडम का शादी नही हो पाया है उम्र बढ़ रहा है, तो इसीलिए मै बोल रहा था की
"नौकरी देखकर शादी न करे इंसान देखकर शादी करे" "अगर इन्सान अच्छा है तो बिना नौकरी के बाद भी बहुत खुश रख सकता है और अगर इंसान गलत है तो नौकरी के बावजूद खुश नही रख सकता"

मेरा राय ये है की अपने समकक्ष नौकरी, योग्यता, उम्र, विचार वाले से शादी करे हमेशा खुश रहेंगे
आज ऐसे भी बहुत से लोग है जो बहुत अछि जिंदगी बिता रहे है जिनके पास नौकरी नही है, और आज ऐसे भी बहुत लोग है जो नौकरी के बावजूद झगड़े लड़ाई होते हुए जिंदगी काट रहे है
अब बात करते है बिना नौकरी वालो की दर्द पर आज किन्ही के यंहा लड़की मांगने जाओ तो लड़का क्या करता है कितना खेत खार है कितना पढ़ा लिखा है बोलते है अगर लड़का कोई नॉन जॉब है तो वही से रिजेक्शन का दंश झेलना पढता है मै ऐसे माता पिता जो नौकरी वालो के पीछे भागते है उनसे निवेदन करता हूँ 


नौकरी वालो को देखते देखते अपने बेटी का जीवन तबाह न करें जो नौकरी नहीं कर रहे है वे भी इंसान है भाइयो, एक आकड़ा बता रहा हूँ 98% जॉब प्राइवेट सेक्टर में है और केवल 2% जॉब गोरमेंट सेक्टर में है पर भी दमांद चाहिए सरकारी नौकरी वाला क्या बात है भाई भले


खुद के बेटा बेरोजगार हो पर बेटी के लिए दमांद चाहिए नौकरी वाला तो आगे आपका भी बेटा है और उनके पास भी जॉब नही है और जब आप अपने लिए बहु ढूंढने जायेंगे फिर सामने वाला भी तो व्ही पूछेगा की आपके बेटे क्या करते है करके फिर उतना टाइम जो दर्द होगा वो आपके साथ नइंसाफी हो रहा है ऐसा प्रतीत होगा पर जब आप दुसरे के बेटा के साथ ऐसा कर रहे होते है उतना टाइम तो आप नही सोचे महोदय इसी को कहते है नहले पे दहला या जैसी करनी वैसी भरनी
लड़की नही देने के लिए कई सारी बहाना मिल जाता है उस क्षेत्र में हमारा कोई रिश्ते दार नही होते कैसे दे देंगे? उस क्षेत्र में नही देंगे या जिस गाँव में मांगने आये है उसी गाँव में हमारे परिवार के दो लोग रहते है कैसे वाही व्ही दे देंगे? हमारे घर वाले उस दिशा में शादी करने से मना किये है, मेरी बुआ वंहा गई थी तो अब वंहा नही देंगे वगेरा वगेरा इतने बहाना बनाते है कम से कम लड़की लड़का को तो पूछो मेरा बाप की वो लोग क्या चाहते है


उनका क्या ओपिनियन है वे अपने होने वाले पति या पत्नी से क्या अपेक्षाए रखता है तो ये नही पूछकर फालतू का बहाना में लगे होते है इसी के चलते हमारे समाज में सही समय में सही रिश्तेदार के साथ शादी नही हो पाता और जीवन भर पछताना पड़ जाता है तो आप लोगों से करबद्ध निवेदन है की जिनके लिए लड़की देख रहे है उनको और 

जिनके लिए लड़का देख रहे है कम से कम 5 मिनट एक दुसरे से बात करने का मौका दिया जाए उन्हें तो शादी किया जा सकता है की नही तय कर पाए वे लोग की वे एक दुसरे को समझ पाएंगे या नही करके, क्योकि शादी एक बार होना है तो बाद में पछताना न पडे पापा के कहने पर शादी किया और आज रो रहा हूँ करके ओके भाइयो कहने को तो और बहुत सी बाते है पर यही विराम करते हुए अगले टोपिक में आता हूँ 

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माँ बाप जब चाहे लडकियों को हर किसी को दिखाया जाता है इससे लडकियों में में एक प्रकार का हीनभावना आने लगता है की मुझे कोई पसंद नही करते करके और अगर लडकियों का शादी सही समय में नही हो पाने पर उम्र बढ़ने लगता है और एक समय के बाद उनके चेहरे से चमक गायब होने लगता है,अगर लडकियों के पिता जी नौकरी


वाले के चक्कर में रहता है और इस साल नही देंगे, बिना नौकरी वाले को नही देंगे बोलता है तो गाँव वाले भी एक समय के बाद उनके घर मेहमान ले जाना बंद कर देते है जिससे लडकियों का शादी नही हो पाता अंत में जैसे भी रिश्ता आये दे देते है तो शादी सही समय में सही इंसान से हो इसके लिए जायदा से जायदा पहल हो और अछे इंसान देखे नौकरी वाला नही 
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आज कल यूवक यूवतीयो के सही समय में शादी नही होने का कारण
 हमारे समाज में सही समय में सही रिश्तेदार और सही समय में शादी नही हो 


पाने का एक  नही अनेक कारण है कुछ मुख्य बातो को बिंदु वार चर्चा करते जाता हू 
1. पहला कारण तो ये है की हम अपने बेटा अगर जॉब में है तो बहु भी जॉब वाली ढूँढना चाहते है


जिसके चलते सही समय में रिश्ता नही मिल पाता 
2. हमारे समाज में अगर लड़की 12वी भी पढ़ी लिखी है तो उसके लिए नौकरी वाले दमांद की चाह के कारण सही समय में शादी नही हो पाता 
3. हमारे यंहा ऐसा भी मानसिकता पनप गया है की हम दुसरो के यंहा रिश्ता लेकर क्यों जाए उनके यंहा रिश्ता लेकर जायेंगे वो


लोग हमारे यंहा रिश्ता नही लायेंगे इसलिए जानते हुए भी किसी के यंहा रिश्ता नही ले जाते ये अक्सर शहरो में ऐसा देखने को और सुनने को मिलता है 
4.हमारे यंहा अगर लड़की जॉब में है तो लड़का भी जॉब वाला ही हो नॉन जॉब लड़का से कभी शादी नही करते 
5.अगर लडकी जॉब में है तो लड़का उससे बड़े जॉब वाले हो तब शादी करेंगे ये देखते देखते उम्र बढती जाती

है 
6.क्षेत्र के कारण भी कारण भी शादी नही देते हम उस क्षेत्र में लड़की नही देंगे इसलिए भी उम्र बढ़ रही है 
7.आज भी हमारे समाज में बढे हल्बा छोटे हल्बा वाली मानसिकता के चलते भी अपने महासभा के बाहर शादी नही करने से लडकियों के उम्र बढ़ रहा है 

और रहने को बहुत सारा बात है पर आज के लिए बस इतना अगर किसी को बुरा लगा होगा मेंरे लेख से तो क्षमा प्रार्थी हूँ

आपका अपना
आर्यन चिराम

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सुखदेव पातर हल्बा // sukhdev patar halba(आर्यन चिराम)

Posted: 25 Jul 2020 09:28 PM PDT

प्रति 
प्रिय पाठकों इससे पहले भी हमने हमारे समाज के गौरव व हमारे स्वतंत्रता सेनानी सुखदेव पातर जी के बारे में संक्षिप्त जानकारी ले चुके है फिर भी आज हम उनके ऊपर की गई कानूनी कार्यवाही व कुछ ऐतिहासिक दस्तावेजो के बारे में इस भाग में जानेंगे तो आइए शुरू करते है आज का चर्चा 
सुखदेव पातर हल्बा, sukhdev patar halba, हल्बा समाज, halba samaj, aaryan chiram, आर्यन चिराम,

"ग्राम भेलवापानी के सुखदेव पातर हल्बा आजादी के लड़ाई में इंदरू केंवट और कंगलू कुम्हार के साथ कदम से कदम मिलकार लड़ाई लड़े थे। विडंबना है कि इंदरू केंवट और कंगलू को सेनानी होने का दर्जा तो मिल गया, लेकिन सुखदेव पातर को सेनानी का दर्जा अब तक नहीं मिल पाया। जबकि साक्ष्य प्रमाण सभी मिले हैं। सुखदेव पातर का परिवार हर साल 9 जनवरी को शहादत दिवस मनाता है। परिवार के ढालसिंह पात्र, कन्हैया पात्र ने बताया कि इसके लिए लगातार प्रयास कर रहे है, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली है। अब सरकार बदल गई है, तो उम्मीद जागी है कि अब कुछ हो सकता है। पिछले वर्ष विधायक मनोज मंडावी ने भी भरोसा दिलाया था कि हमारी सरकार आएगी तो इस पर जरूर पहल होगी। पुराने रिकार्ड बताते हैं कि 1920 से ही इस क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध सत्याग्रह, जुलूस, प्रदर्शन, चरखा झंडे का प्रचार आदि शुरू हो चुका था। इंदरू केंवट, सुखदेव उर्फ पातर हल्बा तथा कंगलू कुम्हार ने महात्मा गांधी के नारों के साथ क्षेत्र में जागरूकता पैदा कर दी थी। भानुप्रतापपुर के तहसीलदार द्वारा इन क्रांतिकारियों के बारे में ठोस सबूत कार्यालय तहसीलदार विस्तृत रिपोर्ट तथा सिफारिस सहित पातर हल्बा तथा कंगलू कुम्हार को स्वतंत्रता सेनानी घोषित करने को प्रेषित किया गया था, जो अपूर्ण था। इनके बारे में जांच करने पर जानकारी के अनुसार इंदरू केवट, कंगलू कुम्हार के साथी थे। 1932 में गांधी के अनुयायी हो गए थे तथा देश को आजाद कराने इनका महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। इनके राजनीतिक गतिविधियों को जानने, सुनने, एवं देखने वालों में से कुछ लोग आज भी जीवित हैं। अब इनके रिकार्ड भी ब्रिटिश समय के थाना रिकार्ड में से ढ़ूंढ कर सामने लाये गये हैं। भानुप्रतापपुर के तहसीलदार द्वारा इन क्रांतिकारियों के बारे में विस्तृत रिपोर्ट तथा सिफारिश प्रस्तुत है, तहसीलदार की विस्तृत रिपोर्ट तथा सिफारिश सहित पातर हल्बा तथा कंगलू कुम्हार के बारे में ठोस सबूत... कार्यालय तहसीलदार भानुप्रतापपुर जिला उत्तर बस्तर कांकेर (छ.ग.) :ज्ञापन: क्रमांक/ /रीडर/तह.2006,भानुप्रतापपुर, दिनांक 25.07.06 प्रति, अनुविभागीय अधिकारी,(राजस्व) भानुप्रतापपुर विषय:- स्व.सुखदेव पातर हल्बा को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी घोषित करने संबंधी। संदर्भ:- 1.विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी सामान्य प्रशासन विभाग मंत्रालय रायपुर का पत्र क्रमांक/136/02/वीआईपी/1-7-06,दिनांक 2.3.06 2. अधीक्षक केन्द्रीय जेल रायपुर का पत्र क्रमांक/1399/वारंट/06,दिनांक 13.04.06 संदर्भित विषयांतर्गत लेख है कि पूर्व में दिनांक 20.3.06 को इस कार्यालय द्वारा स्व.सुखदेव पातर हल्बा निवासी भेलवापानी को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी घोषित किये जाने हेतु जाँच प्रतिवेदन नायब तहसीलदार दुर्गूकोंदल द्वारा प्रेषित किया गया था, जो अपूर्ण था। पुनः तहसीलदार भानुप्रतापपुर द्वारा जाँच किया जाकर प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जा रहा है। व्ही.सी.एन.बी ग्राम भेलवापानी के अवलोकन से पता चलता है कि स्व.सुखदेव पातर एवं कंगलू कुम्हार को भारत रक्षा कानून के तहत दिनांक 17.4.1943 को 25 रूपये का जुर्माना एवं अदम अदायगी 4 माह की सख्त कैद की सजा हुई थी। अतः स्व.सुखदेव उर्फ पातर हल्बा निवासी भेलवापानी एवं कंगलू कुम्हार निवासी घोटुलमुंडा को स्वतंत्रता सेनानी घोषित करने हेतु अनुशंसा करता हूँ। संलग्न- जाँच प्रतिवेदन तहसीलदार भानुप्रतापपुर न्यायालय तहसीलदार भानुप्रतापपुर जिला उत्तर बस्तर कांकेर (छ.ग.) रा.प्र.क्र./बी-121/2005-06 ग्राम -भेलवापानी तहसील- भानुप्रतापपुर विषय: स्व.सुखदेव उर्फ पातर हल्बा को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी घोषित करने विषयक। प्रस्तुत प्रकरण में छत्तीसगढ़ शासन सामान्य प्रशासन विभाग मंत्रालय दाऊ कल्याण सिंह भवन रायपुर को पत्र क्रमांक 136/2/व्हीआईपी/1-7 रायपुर 2.3.06 के द्वारा स्व.सुखदेव उर्फ पातर हल्बा निवासी भेलवापानी को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी घोषित करने हेतु जाँच एवं प्रतिवेदनार्थ कलेक्टर उत्तर बस्तर कांकेर के माध्यम से प्राप्त हुआ है। प्रकरण इस न्यायालय में पंजीबद्ध कर जाँच की कार्यवाही की गई एवं स्व.सुखदेव पातर हल्बा के परिवार के सदस्यों से पातर हल्बा के संबंध में जानकारी रखने वालों से जानकारी ली गई। 1. स्व.सुखदेव उर्फ पातर हल्बा स्व.रघुनाथ हल्बा का पुत्र था। इसका जन्म ग्राम राऊरवाही में संभवतः 1892 के आसपास हुआ होगा। वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंदरू केंवट, कंगलू कुम्हार के साथी थे और 1932 से गाँधी जी के अनुयायी हो गये थे। सुखदेव के पिता रघुनाथ,राऊरवाही से ग्राम भेलवापानी में आकर बस गये थे, यहीं से इनका राजनीति के प्रति रूझान पैदा हुआ अपने साथी इंदरू केंवट, कंगलू कुम्हार के साथ मिलकर देश को आजाद करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। इनके राजनीतिक गतिविधियों को जानने, सुनने एवं देखने वालों में से कुछ लोग आज भी जीवित हैं, इनसे संपर्क कर बयान लेखबद्ध किया गया। सुखदेव पातर की दो पत्नियाँ थीं और दोनों से एक-एक संतानें हैं। पहली पत्नी लखमी बाई से एक पुत्री इतवारीन बाई जिसकी शादी ग्राम चेमल में हुई थी। दूसरी पत्नी थनवारीन बाई थी,जिसका पुत्र श्री रामानंद पिता सुखदेव पातर है। 2. स्व.सुखदेव पातर की गतिविधियों को जानने वालों में से श्री जंगलूराम पिता जितऊ हल्बा उम्र 80 वर्ष ने अपने बयान में बताया कि एक बार खण्डी नदी के पास पातर बगीचा में पहली बार बैठक हुई थी जिसमें लगभग एक-डेढ़ हजार लोग उपस्थित हुए थे। मानपुर, राजनांदगांव जिला से लेकर आसपास के लोग उपस्थित हुए थे। वे अपना भोजन साथ लेकर आये थे। लोग अपने साथ चरखा युक्त तिरंगा झण्डा लेकर आये थे। झण्डे को आम के वृक्ष में सभी लोग रखे एवं उसकी पूजा की,उस आम के वृक्ष को आज भी लोग झण्डा आमा के नाम से जानते हैं। इस बैठक में सुखदेव पातर और कंगलू कुम्हार तथा इंदरू केंवट ने भाषण दिया था। एक बार कोड़ेकुर्से के बाजार में भी जुलूस निकाले थे। सुखदेव पातर और कंगलू कुम्हार को पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेजा था। 3. दुआरूराम पिता उजियार जाति हल्बा उम्र 70 वर्ष ने अपने बयान में बताया है कि सुखदेव पातर,कंगलू कुम्हार, रंजन हल्बा, विनायकपुर का भूरका माँझी मिलकर स्वराजी झण्डा लेकर गाँव-गाँव में घूमते थे। ग्राम चेमल में स्वराज आंदोलन की शुरुआत हुई थी। उस समय मेरी उम्र 10-12 साल की रही होगी। वे निम्नानुसार गीत गाते थे- 1. झण्डा ऊँचा रहे हमारा, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा... 2. भारत देश आजाद हो-आजाद हो। 3.छिन में गोली खईले, पर हित जान जईले, नाम तेरा अमर रहिबो गाँधी बाबा जी अपने विजय लगईले, लड़कर विजय लगईले, नारीओं को जेल भेजईले चक्की में पेरईले,कोल्हू में पेरईले हाथ में हथकड़ी लगवाये बाबा गाँधी जी। 4. जरे अंगरेजवा के रिंगी चिंगी कपड़ा, गाँधीजी हमला बताईसे, चरखा चलाई दिये,राहंटा कटई दिए, खादी के कपड़ा पहिनाये गाँधी बाबा जी। झण्डा आमा पातर बगीचा में है यहाँ कभी-कभी स्वराज वाले बैठक करते थे। पातर हल्बा,कंगलू कुम्हार और इंदरू केंवट पहले दुर्ग गये और बाद में धमतरी गये वहीं से उनको चरखा वाला झण्डा मिला। सुखदेव पातर की मृत्यु 1962 में हुई। 4.धरमूराम पिता जयराम जाति हल्बा उम्र 79 वर्ष ने अपने बयान में बताया कि मैं ग्राम सुरूंगदोह में इंदरू केंवट के घर में नौकरी करता था। सुखदेव पातर,कंगलू कुम्हार और इंदरू केंवट को पुलिस गिरफ्तार करने के लिए ढ़ूंढती रहती थी। एक बार इंदरू केंवट की पत्नी और पुत्री मिलकर पुलिस वालों को गाली-गलौज कर भगा दिये उस समय मैं वहीं था। एक बार पुलिस सुरूंगदोह के घर से इंदरू केंवट को गिरफ्तार किये और कांकेर जेल ले गये। सजा नहीं हुई रिहा किया गया। सुखदेव पातर,कंगलू कुम्हार अपनी जान की परवाह किये बगैर स्वराजी आँदोलन चलाते थे। गाँव-गाँव पैदल जाकर ग्रामीणों को समझाते थे और जुलूस निकालते थे। अंग्रेज भागे,उस दिन इंदरू, सुखदेव और कंगलू अपने-अपने गाँव में रहकर लोगों को इकट्ठा किये। जंगल से सागौन वृक्ष काट कर लाये और झण्डा बनाकर पूजापाठ करके त्यौहार के रूप में स्वतंत्रता दिवस मनाया। ग्राम सुरूंगदोह और गोटुलमुंडा में आज भी 1947 का गाड़ा हुआ खम्भा मौजूद है। 5. भारतसिंह पिता घड़वा उम्र 75 वर्ष ने अपने बयान में बताया कि मैं सुखदेव पातर,कंगलू कुम्हार,इंदरू केंवट को जानता हूँ। ये लोग झण्डा लेकर गाँव-गाँव जाते थे और लोगों को बताते थे कि अंग्रेजों को भगाना है और कांग्रेस को लाना है। सन् 1941-42 में सात आठ लोग इंदरू केंवट,सुखदेव पातर,कंगलू कुम्हार, ठंगू पातर,रोहिदास गोंड़,ढोंगिया ठाकुर आदि हमारे गाँव अमोड़ी में आये और अपने साथ लाये झण्डों को गाँव के देवगुड़ी के खम्भे में गाड़ दिये। गाँव वाले को इकट्ठा किये एक बकरा लाये,देवगुड़ी में पूजा किये और बकरे की बलि चढ़ाये भारत माता की जय,महात्मा गाँधी की जय,नारा लगाये और भाषण दिये। दोपहर भोजन के बाद शाम को चले गये। इस तरह इन लोगों का आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण योगदान था। स्व.सुखदेव पातर के संबंध में और जानकारी प्राप्त करने के लिए पुलिस थाना दुर्गूकोंदल एवं भानुप्रतापपुर में संधारित व्ही. सी.एन.बी. ( विलेज क्राईम नोट बुक) का अवलोकन किया गया। ग्राम चेमल के व्ही.सी.एन.बी.में दिनांक 7.12.1941 में लिखा गया है कि इस मौजे में आजकल स्वराजी हरकत की गड़बड़ शुरू हुआ है। इंदरू केंवट के बहकावे में इस अतराफ के लोग स्वराज में शामिल हो रहे हैं। मानपुर से (राजनांदगाँव जिला) स्वराजी झण्डीयाँ खरीद कर लाये हैं और अपने-अपने घरों में रखे हैं। दिनांक 22.3.42 को लिखा गया है कि आज खास खण्डी घाट में कंगलू कुम्हार ने एक बड़ा बैठक झण्डी वालों का किया इस बैठक में करीब 200-300 आदमी जमा हुए। 30-32 झण्डा वाले भी थे,इस बैठक के मुखिया 4 थे। कंगलू कुम्हार, सुखदेव हल्बा भेलवापानी, इंदरू केंवट कोड़ेकुर्से, सहगू गोंड़ पालवी। सुखदेव पातर ने अपने भाषण में कहा है कि लड़ाई के काम में चंदा, बरार या किसी तरह की मदद नहीं देंगे। इसकी इत्तला मजिस्ट्रेट को दी गई। दिनांक 5.4.1942 को भानुप्रतापपुर बाजार में जब भानुप्रतापपुर डाक बंगले में जु.साहब बहादुर का मुकाम था। स्वराजी झण्डे वाले जुलूस के साथ आये इसमें मुखिया कंगलू कुम्हार, सुखदेव हल्बा एवं दारसू गोंड़ हेटारकसा थे। जु.साहब ने उन्हें समझाया मगर ये कोई ध्यान नहीं दिये और झण्डा को ऊँचा करके चले गये। दिनांक 11.4.1942 को लिखा गया है कि खण्डी घाट में मीटिंग तारीख 25.3.1942 को हुआ था और कंगलू एवं सुखदेव ने इस बैठक में लड़ाई में कोई मदद या चंदा वगैरह न देने की नाजायज बात कही थी इसकी रिपोर्ट होने पर जु.साहब बहादुर ने इन पर रूल नंबर 38 भारत रक्षा कानून के अनुसार मामला चलाने की मंजूरी दी है। हुक्म मुताबिक जाँच कर रिपोर्ट जु.साहब पुलिस को भेजी गई और उनके हुक्म से मुकदमा कायम कर चालान की कार्यवाही कंगलू एवं सुखदेव हल्बा के खिलाफ की गई। दिनांक 17.4.42 को लिखा गया है कि दोनों मुलजिमों को 25-25 रूपये जुर्माने की सजा हुई। ग्राम भेलवापानी के व्ही.सी.एन.बी.में दिनांक 25.4.42 को लिखा गया है कि सुखदेव हल्बा एवं कंगलू कुम्हार साकिन चेमल को अदालत जु.जा.कांकेर से 25-25 रूपये जुर्माने की सजा खादिर हुआ। अदम-अदाय जुर्माने के 4 माह सख्त कैद (17.4.43)। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व.इंदरू केंवट के हिस्ट्री शीट में लिखा है कि सुखदेव पातर,इंदरू केंवट,कंगलू कुम्हार एवं उनके साथियों ने दिनांक 18.3.1942 को कोड़ेकुर्से के बाजार में स्वराजी झण्डी का जुलूस निकालने का इरादा कर लिया था। इसकी सूचना मिलने पर पुलिस गार्ड भेजी गयी थी तहसीलदार साहब भी थे। सुखदेव पातर एवं रंजन हल्बा झण्डी लेकर आये हुए थे मगर पुलिस का इंतजाम देखकर जुलूस निकालने की हिम्मत नहीं कर सके। दिनांक 20.3.42 को सुखदेव पातर और रंजन हल्बा ने 10 आदमियों को लेकर अचानक कोड़ेकुर्से के बाजार में जुलूस निकाला। इससे इनको हिम्मत हुई तो स्वराजी झण्डी का जुलूस बरहेली और तरहूल के बाजार में भी निकाला गया। दिनांक 28.3.42 को मौजा चेमल खण्डी घाट में एक जबरदस्त बैठक हुआ जिसमें स्वराजी झण्डी की पूजा की गई। जुलूस निकाला गया। इस बैठक में सुखदेव पातर,इंदरू एवं कंगलू कुम्हार ने लड़ाई में मदद न पहुँचाने और सरकार का कोई काम नहीं करने का नाजायज लैक्चर दिया गया था और इस बैठक में प्रस्ताव पारित किया गया था कि भानुप्रतापपुर के बाजार में स्वराजी झण्डी का जुलूस निकाला जाय। दिनांक 5.4.42 को भानुप्रतापपुर के बाजार में दो तीन सौ आदमियों का जुलूस स्वराजी झण्डी के लिए निकाला गया। उस दिन पोलिटीकल एजेन्ट से बहुत कहा सुनी हुई,ये लोग नहीं माने और झण्डा को ऊँचा कर चल दिये। इस इलाके में जुलूस आदि को बंद करने के गरज से दरबार आर्डर नं. 7 ता. 7.4.42 जारी किया गया और जुलूस, बैठक आदि पर प्रतिबंध लगाया गया। दिनांक 28.5.42 को ग्राम भेलवापानी में सुखदेव पातर हल्बा के घर में दरबार आर्डर के खिलाफ एक बैठक रात के वक्त कर रहे थे कि मुखबिर की सूचना के आधार पर पुलिस ने दबिश दी इसने सुखदेव पातर,कंगलू कुम्हार और रंजन हल्बा गिरफ्तार किये गये। इंदरू केंवट पुलिस को चकमा देकर भाग गया। सुखदेव पातर,कंगलू कुम्हार पर डि.आई.रूल्स 38 (भारत रक्षा कानून की धारा 38 ) के तहत चालान पेश किया गया था। जिसमें अदालत जु.जा.काँकेर के आदेश दिनांक 17.4.43 को सुखदेव पातर और कंगलू कुम्हार को 25-25 रूपये जुर्माने की सजा हुई अदम अदाय जुर्माने के 4 माह सख्त सजा हुई थी। संपादक जे.आर.वालर्यानी प्राध्यापक/संयोजक इतिहास विभाग द्वारा प्रकाशित छत्तीसगढ़ में आदिवासी आँदोलन नामक शोध पत्रिका में शोधकर्ता प्रदीप जैन सहायक प्राध्यापक (इतिहास) भानुप्रतापदेव शास. स्नातकोत्तर महाविद्यालय काँकेर ने अपने शोध पत्र में लिखा है कि भानुप्रतापपुर तहसील में स्थित भेलवापानी निवासी पातर हल्बा ने आदिवासियों में अंग्रेजों के विरुद्ध शंखनाद किया था। 1920 ई.में कंडेल आँदोलन के सिलसिले में महात्मा गाँधी धमतरी आये थे। पातर हल्बा अपने दो साथी इंदरू केंवट और कंगलू कुम्हार के साथ पैदल चलकर महात्मा गाँधी से मिला था। सन् 1933 ई.में पातर हल्बा ,इंदरू केंवट और कंगलू कुम्हार गाँधी से दुर्ग में मिले थे। सन् 1944-45 में पातर हल्बा ,इंदरू केंवट और कंगलू कुम्हार के नेतृत्व में काँकेर रियासत के दीवान टी,महापात्र द्वारा भू-राजस्व (लगान) में वृध्दि किये जाने के विरोध में आँदोलन चलाया गया। पातर हल्बा और उनके साथियों के कहने पर आदिवासियों ने बढ़े हुए भू-राजस्व को पटाने से इंकार कर दिया। ब्रिटिश प्रशासन ने पातर हल्बा, इंदरू केंवट और कंगलू कुम्हार व 429 आदिवासियों पर राजद्रोह का मुकदमा चलवाया। भू-राजस्व विरोधी आँदोलन की भयानकता को देखते हुए रियासत प्रमुख महाराजाधिराज भानुप्रतापदेव ने आँदोलनकारियों से समझौता कर लिया और आँदोलनकारियों पर चल रहे मुकदमों को वापस ले लिया गया। उक्त बातें शोधकर्ता प्रदीप जैन ने आजादी की लड़ाई का सच्चा सैनिक था पातर हल्बा नामक शीर्षक से प्रकाशित किया है। लेखक जे.आर.वाल्रर्यानी द्वारा लिखित 'क्रांतिवीर इंदरू केंवट (काँकेर रियासत का गाँधी)' नामक पुस्तक में लिखा है कि इंदरू केंवट के साथी सुखदेव पातर के भाषण से से प्रभावित होकर भानुप्रतापपुर के लोगों ने स्वदेशी वस्तुओं को अपनाना प्रारंभ किया। सन् 1923 ई.में कांग्रेस द्वारा झण्डा सत्याग्रह की घोषणा की गई। सुखदेव पातर,इंदरू केंवट और कंगलू कुम्हार ने सैकड़ों की संख्या में सत्याग्रह सैनिक तैयार किये। दिनांक 22.11.1933 को जब महात्मा गाँधी दुर्ग आये उस दिन सुखदेव पातर,इंदरू केंवट और कंगलू कुम्हार महात्मा गाँधी से मिले थे और हरिजन उध्दार कोष में चंदा भी दिया था। उपरोक्त विवेचना एवं दस्तावेजों के अवलोकन तथा जानकार लोगों के बयान से यह सिद्ध होता है कि स्व.सुखदेव उर्फ पातर हल्बा,इंदरू केंवट और कंगलू कुम्हार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, आजादी के सच्चे सिपाही थे,स्वतंत्रता समर के अमर शहीद थे। दुर्भाग्य की बात है कि इन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का दर्जा आज तक नहीं मिल पाया। इनके साथी इंदरू केंवट की जीवनी छत्तीसगढ़ के पाठ्यपुस्तक में शामिल किया गया है। इस सुदूर वनांचल में रहकर इन आजादी के दीवानों ने देश को आजाद करवाने में अपने जान की परवाह किये बगैर महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मेरे द्वारा जेल अधीक्षक काँकेर से संपर्क कर सुखदेव पातर के सजा की पुष्टि हेतु अभिलेखों का निरीक्षण किया गया। सुखदेव पातर को सजा हुई थी,ऐसा कोई अभिलेख प्राप्त नहीं हुआ। अधीक्षक केन्द्रीय जेल रायपुर के पत्र क्रमांक/1399/वारंट/06,दिनांक 13.4.06 के अनुसार स्व.श्री सुखदेव पातर पिता रघुनाथ जाति हल्बा निवासी भेलवापानी तहसील भानुप्रतापपुर जिला उत्तर बस्तर काँकेर का सन् 1942 एवं 1945 के जेल अभिलेख में नाम नहीं पाया गया। इससे स्पष्ट होता है कि सुखदेव पातर को जेल नहीं हुई थी। उसे भारत रक्षा कानून की धारा 38 के तहत 25 रूपये जुर्माना या जुर्माना नहीं पटाने पर 4 माह की सख्त कैद की सजा सुनाई गई थी। सुखदेव पातर द्वारा जुर्माने की राशि अदा की गई होगी इसलिए जेल नहीं भेजा गया था। उपरोक्त श्रीमान अनुविभागीय अधिकारी (राजस्व) भानुप्रतापपुर के माध्यम से सादर संप्रेषित। संलग्न सहपत्र- 1. ग्राम भेलवापानी का व्ही.सी.एन.बी.की छायाप्रति। 2.ग्राम चेमल का व्ही.सी.एन.बी की छायाप्रति। 3.प्रदीप जैन सहायक प्राध्यापक (इतिहास) शास.भानुप्रतापदेव स्नातकोत्तर महाविद्यालय काँकेर का शोधपत्र की छायाप्रति। जी.आर.बघेल तत्कालीन तहसीलदार,भानुप्रतापपुर 👆👆👆👆👆👆 उत्तर बस्तर काँकेर जिले के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखने योग्य गाँधीवादी सत्याग्रहियों की कहानियाँ धीरे-धीरे सामने आती जा रही है, जिन्हें अब तक अज्ञानियों तथा निहित स्वार्थ वालों ने रोके रखा था। पुराने रिकार्ड बताते हैं कि 1920 से ही इस क्षेत्र में अंग्रेजों के विरूद्ध सत्याग्रह,जुलूस, प्रदर्शन, चरखा झण्डे का प्रचार आदि शुरू हो चुके थे। इंदरू केंवट, सुखदेव उर्फ पातर हल्बा तथा कंगलू कुम्हार ने महात्मा गाँधी की जय के नारों के साथ क्षेत्र में एक जागरूकता पैदा कर दी थी। " चमन पे वक्त पड़ा था, तो खून हमने दिया- बहार आई,तो कहते हैं,तेरा काम नहीं।" यह स्थिति दूर होनी चाहिए। पुलिस के सामने सीना खोलकर नारे लगाने वाले आजादी के ये दीवाने मौत से भी नहीं डरते थे, फिर जेल कचहरी की बात ही क्या? आजाद भारत को 73 साल बीत गये,आजादी के परवानों में से स्व.सुखदेव पातर हल्बा को आज भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का दर्जा नहीं मिल सका है। दुख की बात यह है कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को भी बार-बार स्वयं के सेनानी होने का सबूत देना पड़ रहा है। राजनीतिक दल हमेशा स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को पार्टी विशेष से जोड़कर देखती हैं, यही कारण है कि सुखदेव पातर हल्बा जैसे एक महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आज तक सेनानी घोषित नहीं किया गया। आशा करते हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार बिना किसी भेदभाव के संवेदनशीलता दिखाते हुए स्व.सुखदेव पातर हल्बा को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का दर्जा जरूर देगी। जय भारत आपको मेरे द्वारा दी गई जानकारी कैसे लगा  बताना न भूलें आपका अपना आर्यन चिराम 

घाट पावनी // ghat pawni (आर्यन चिराम)

Posted: 25 Jul 2020 09:29 PM PDT

प्रिय पाठकों 
घाट पावनी, ghat pawni, aaryan chiram, हल्बा समाज, halba samaj, प्रथा, prtha, आर्यन चिराम,

हम आज जिस विषय मे चर्चा करने वाले है उस विषय का नाम आपने पहले ही जान चुके है । घाट पावनी यह प्रथा बस्तर में पहले प्रचलित था परंतु समय के साथ बंद हो गया, मैं यह एक बात यह बताने वाला हूँ कि पहले से ही हल्बा जनजाति समाज का स्थिति कितनी सुदृण था हल्बा समाज छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख जनजाति समाज है जिनका स्थिति राजाओं के जमाने से ही कांफी सुसभ्य व सुदृण है व बस्तर क्षेत्र में अन्य जनजाति व जातीय समाज के मध्य एक बड़े भाई की पदवी धारण किये हुए है सभी जनजातियों से इनका संबंध बहुत ही मैत्रीयपूर्ण है व सभी हल्बा समाज के लोगो के साथ पारिवारिक सम्बंध रखते है ठाकुर केदारनाथ ने 1908 में अपने पुस्तक बस्तर भूषण में इस बात का जिक्र भी किया हुआ है कि हल्बा समाज उस समय का सबसे सभ्य व सुसंस्कृतिक समाज है इसी कड़ी में हम बात करने वाले है उस समय के प्रथा घाट पावनी के बारे में घाट पावनी जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि किनारा लगना पहले जब किसी महिला की पति की मृत्यु हो जाता था तो उस महिला को बाजार में बेचा जाता था तथा उनसे जो आय प्राप्त होता था उन्हें राज कोष में जमा किया जाता थ|हल्बा समाज इस प्रथा से मुक्त था क्योंकि उस समय हल्बा जनजाति की स्थिति कांफी मजबूत थी क्योकि हल्बा समाज के लोग उस समय मोकासादर हुआ करते थे उस समय जो गांव का राजस्व वसूली करता था उसे मोकासादार कहा जाता था और हल्बा जनजाति घाट पावनी प्रथा से मुक्त तो था ही साथ ही अन्य कई सुविधाएं भी प्राप्त थी हल्बा जनजाति को राजस्व कर से भी छूट था साथ ही मुख्य पुजारी का भी कार्य केवल हल्बा जनजाति के भाई करते थे साथ ही राज परिवार का अंगरक्षक या आंतरिक सुरक्षा का जिम्मा भी हल्बा जनजाति के हांथो में था क्योकि हल्बा सेनापति के एक इशारे से हजारों आदिवासी मारने मरने को सदैव तत्पर रहते थे जिसके कारण हल्बा समाज को उस समय एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था |जिसके कारण हल्बा जनजाति के भाई कई महत्वपूर्ण प्रथाओं को बंद करवाने में अपना पक्ष रखे फलतः सन 1898 में इस घाट पावनी जैसे कुप्रथा को बंद करवाने महत्वपूर्ण भूमिका अदा किए ....धन्य थे वे लोग जो उस समय राज परिवार के इतने विश्वासपात्र रहे व राजाओं के हर आज्ञा का पालन अपने प्राण दे कर चुकाए ....धन्य है वे लोग जो अंतिम क्षण तक  राज भक्ति की लाज रखे व धन्य है मेरा समाज जो आज भी हमे ईमानदारी की पाठ पढ़ाने के लिए एक प्रेरणार्दर्शक के रूप में हमे प्रेरणा दे रहा है मैं ऐसे समाज मे जन्म लेकर बहुत ही गर्वान्वित महसूस करता हूँ ....जय हल्बा जय माँ दन्तेश्वरी जय हो हल्बा विरो मैं आप सभी के बलिदानी को बारंबार प्रणाम करता हूँ 
घाट पावनी, ghat pawni, aaryan chiram, हल्बा समाज, halba samaj, प्रथा, prtha, आर्यन चिराम,
आपका अपना आर्यन चिराम

कविता

Posted: 25 Jul 2020 07:41 PM PDT

कोनो के संग, जब नैना लड़ जाथे ।।
ये दुनियावाले मन, पाछु पड़ जाथे ।।

फेर दुनिया के कोनो डर नई रहय ।।
जब कहुं प्यार के कांटा गड़ जाथे ।।

तोर मया के, अईसे कांटा गड़े हौं ।।
तोर बर दिल मे प्यार उमड़ जाथे ।।

'लाली सूट' पहिर के जब आथस ।।
देखके तोला रे धड़कन बढ़ जाथे ।।
तोर बर दिल मे प्यार उमड़ जाथे ।।

जब मुस्कुराथस तै देख के मोला ।।
104°डिगरी के बुखार चढ़ जाथे ।।
तोर बर दिल मे प्यार उमड़ जाथे ।।

         **कृष्णा पारकर**

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