10.2 भुमकाल का सूत्रपात
1908 में एक ऐसी घटना घटी, जिसने परजा-क्षेत्र में किसी गंभीर संकट की विविध संभावनाओं को उभाड़ दिया था। परजा- क्षेत्र में घोर यंत्रणा का दृश्य उपस्थित हुआ था। और इसके कारण व्यापक जनरोष फैल गया था। उसे दबाने के लिए सरकारी अधिकारियों ने आतंक का सहारा लिया । "सरकारी अधिकारियों ने परजा-क्षेत्र के लोगों पर नृशंसता का आचरण किया। उन्होंने कहा कि सबसे बड़ी पाशविकता तो यह थी कि भोलेभाले आदिवासियों का सामूहिक नरसंहार
किया गया । उन्होंने यह भी देखा कि पुलिस--जन लूट रहे थे और सामूहिक बलात्कार कर रहे थे इस प्रकार के हावभावों से आम जनता की मनः स्थिति पर दुर्भाग्यजनक प्रभाव पड़ा।" इस प्रकार अत्याचार के खिलाफ आवाज सबसे पहले जगदलपुर के परजा लोगों ने बुलंद की थी। सम्प्रति धुरवा-नाम से सम्बोधित यह जनजाति जगदलपुर तहसील के दक्षिण-पूर्व कांकेर के संरक्षित वन के उत्तर और दक्षिण, तथा जगदलपुर व सुकमा के सीमान्त- क्षेत्र में निवास करती है । उत्तरी क्षेत्र के परजा कांकेर के संरक्षित वन-क्षेत्र के परजा की तुलना में अधिक विकसित थे। ये धुरवा अत्याचारों के खिलाफ स्वतः लामबंद हो गए थे । शायद अन्य कारणों से भी ये विक्षुब्ध थे, धुरवा-क्षेत्र के अतिरिक्त बस्तर के अन्य जनजातीय क्षेत्र भी ब्रिटिश सरकार के अत्याचार से पीड़ित थे। ये थे गदबा, भतरा, राजमुरिया,मुरिया, दण्डामी माडिया, अबुझमाड़िया, दोलो,तथा हलबा । अन्य जातीय अल्पसंख्यक; यथा महरा,धाकड़,पनारा,सुंडी,कलार,बंजारा,क्षत्रिय,ब्राह्मण तथा कायस्थ वर्ग ने भी अत्याचार सहा था और इन सबने संघबद्ध होकर ब्रिटिश सरकार के
खिलाफ विद्रोह का झंडा उठाया था। इस प्रकार समूचा बस्तर ही विद्रोही बन गया था। ब्रिटिश-सरकार का तलवा चाटने वाले राजा, जमींदारा, जागीरदारों तथा मुकासदारों ने ही अपने को विद्रोह से दूर रखा था। ये सभी आदिवासी तथा गैर आदिवासी-वर्ग अपने सारे भेदभाव मिटाकर एक दूसरे से पूरी तरह मिल गए थे। कुछ ऐसे भी वर्ग थे, जिन्होंने थोड़ा फासला बनाए रखा। दक्षिण बस्तर में परजा विद्रोह में प्रभावी भूमिका निभा रहे थे, तो उत्तर बस्तर में मुरिया ने "मुरियाराज" की उदघोषणा कर दी थी। राजधानी से निकट होने के कारण परजा लोगों में मुरिया लोगों की तुलना में अधिक जागरूकता थी। परजा मुरिया लोगों की तुलना में अधिक शक्तिशाली और साहसी थे। 'भुमकाल' का समूचा आदिवासी-साहित्य परजाओं की कठोरता तथा यद-कौशल का मौखिक प्रमाणपत्र है। हिन्दी के उपन्यास तथा कहानियों में मुरिया लोगों की यातनाओं का विवरण है। भौगोलिक विस्तार के आधार पर विचार करें तो मानना पड़ेगा कि उक्त विद्रोह ने समूचे बस्तर को अपने आगोश में समेट लिया था। उस समय बस्तर 84 परगनों में विभाजित था। इनमें से 10 परगनों की उक्त विद्रोह में सक्रिय भागीदारी थी,जबकि शेष परगनों ने भी अशान्ति के कारणों का समर्थन किया था। निरपेक्ष भाव से विद्रोही वर्गों की सैनिक क्षमता पर विचार करने से यह ज्ञात होता है कि
जाहिराना तौर पर वे दुर्जेय नहीं थे। कोई भी जत्था बहुत विशाल नहीं था। किसी भी जत्थे में एकहजार से ज्यादा की संख्या नहीं होती थी और शस्त्र के नाम पर आदिवासियों के पास केवल धनुष-बाण तथा भाले थे । एक लेखक का कथन है कि सौ लोगों के सरकारी । सैन्यबल के सामने भी ये विद्रोही टिक नहीं पाते थे और सेना के पहुँचते ही मैदान छोड़कर भाग जाते थे। फिर भी विद्रोहगत सारी कमियों के बावजूद यह मानना पड़ेगा कि उन्होने बस्तर में ब्रिटिशराज की नींद हराम कर दी थी।ब्रिटिश अधिकारियों ने यह महसूस किया था कि लाल कालेन्द्रसिंह ने विद्रोह को भड़काया तथा उसे संगठित किया। शायद इसलिए कि एक बार वे राजा बनने का सुनहरा मौका खो चुके थे और अब नहीं खोना चाहते थे;
क्योंकि रुद्रप्रतापदेव के यहाँ पुत्र के बजाय पुत्री पैदा हुई थी। 1910 के भुमकाल की आभ्यन्तर संरचना के नायक लाल कालेन्द्रसिंह थे। उनकेसाथ अधोलिखित लोग जुड़े हुए थे-(क) रानी सुबरन कुँअर (ख) मुकुन्ददेव माछमारा बाबू (ग) कुँअर बहादुरसिंहकुँअर अर्जुनसिंहमूरतसिंह बख्शीबालाप्रसाद नाजिरदुलनसिंह कायस्थबच्चूप्रसाद पंडितसोमनाथ बैदबीरसिंह बहीदारजानकीराम नायडू (ठ) हरचंदनायक (हलबा)इस आभ्यन्तर नेतृत्व ने विविध प्रकार की ऐसी अफवाहों को जन्म दिया, जिससे ब्रिटिश सरकार तथा उसके समर्थक राजा जनता की नजरों से गिर जायँ। इन्होंने अनेक आरोप लगाए तथा यह भी कहा कि बस्तर पर राज्य करने के लिए राजा के पास नैतिक अधिकार नहीं है । क्योंकि उसकी वैधता ही संदिग्ध है। यह आरोप यदि नहीं लगाया जाता तो राजा के प्रति आदिवासी जनता में ईश्वर के अवतार का पारम्परिक भाव समाप्त न होता और वैसी स्थिति में। 'प्रकृतिकोप' भी नहीं फैलता। राजा को अवैध संतान कह कर उसे देवत्व से नीचे उतार दिया गया। फलस्वरूप राजा के प्रति प्रजा का भक्तिभाव भी जाता रहा । पटरानी ने भी 'मुरियाराज का नारा देकर राजा तथा ब्रिटिश-अधिकारियों का साथ छोड दिया था, जिससे विद्रोह की भूमिका और भी अधिक दृढ़ हो गयी थी। आदिवासियों से यह बार-बार कहा गया कि रुद्रप्रतापदेव तो नाम मात्र के अवैध राजा है, असली राजा तो अंग्रेज हैं। आदिवासियों के लिए यह दुःखद स्थिति । थी कि अंग्रेजों को राजा मानने से राज्य की अधिष्ठात्री देवी दन्तेश्वरी रुष्ट हो जाएगी। फलतः आदिवासियों का 'प्रकृतिकोप' स्वाभाविक था आभ्यन्तर विद्रोह से जुडे हए लोगों का बिटिश-सरकार के खिलाफ दुष्प्रचार इतना सशक्त था कि राजगुरु तथा दीवान के नाम आदिवासियों के लिए अभिशाप बन गए। वे राजा तथा । ब्रिटिश सरकार को भी धिक्कारने लगे। चूँकि उक्त प्रचारतंत्र में बस्तर के प्रतिष्ठित भूतपूर्व सभासदों का हाथ था; इसलिए आदिवासियों के लिए अविश्वास की स्थिति ही नहीं थी। अक्टूबर 1909 को दशहरे के दिन ताड़ोकी में जंग का एलानकालेन्द्रसिंह ने उन आदिवासियों को जगाना प्रारंभ किया,जो ताड़ोकी में उनसे मिलने आते थे। ताड़ोकी अन्तागढ़-तहसील में स्थित एक गाँव है,जो जगदलपुर से सौ मील दूर है। 1891 से ही आदिवासी नेता अपनी शिकायतों को लेकर ताडोकी जाते थे और कालेन्द्रसिंह सब की शिकायतें ध्यान से सुनने के बाद उनका निपटारा करते थे। भूतपूर्व दीवान ने आदिवासियों को यह समझाया कि ब्रिटिश-सरकार के कारण देवधामी रुष्ट है और उसी कारण तकलीफें बढ़ी हैं । इसका मात्र एक ही निदान है कि हम ब्रिटिशराज की जड़ें खोदकर उसमें मठा डाल दें। यदि ऐसा न कर पाए तो परदेशी बस्तर पर छा जाएँगे और सभी आदिवासी उनके बंधक बन जाएँगे। कालेन्द्रसिंह ने यह भी वायदा किया कि इस संकट की घड़ी में वे आदिवासियों के साथ हैं और बस्तर की अस्मिता के लिए वे अपने प्राणों की बलि दे देंगे। दन्तेश्वरी इस समय अंग्रेजों और उनके चाटुकारों की बलि चाहती है।"अक्तूबर 1909 में दशहरे के दिन रानी सुबरन कुँअर ने लाल कालेन्द्रसिंह, भूतपूर्व सभासदों तथा हजारों आदिवासियों को ताड़ोंकी में सम्बोधित किया और उन्होंने आदिवासियों को याद दिलाया कि 1876 में वे किस प्रकार ब्रिटिश-कुप्रशासन के विरुद्ध एकजुट होकर उठ खड़े हुए। थे और ब्रिटिश-शासन को अन्त में उनकी बात माननी पड़ी थी। आदिवासियों के दबाव के ही कारण राज्य के बदनाम अधिकारियों; जैसे गोपीनाथ व आदितप्रसाद को राज्य से बाहर निकाला गया था। यदि आप लोग प्रतिज्ञा करें तो एक बार पुनः ब्रिटिश सरकार को झुकाया जा सकता है और बस्तर- भूमि से हमेशा के लिए उन्हें 'बोहारा' (झाड़ना) जा सकता है" रानी ने उपस्थित जनता को पुन: उत्साहित करते हुए कहा कि "आप लोग अंग्रेजों के प्रतीक दीवान के
खिलाफ तत्काल संघर्ष छेड़ दें। आप लोग उन कर्मचारियों को निकाल कर बाहर कर दें,जो बस्तर के दुश्मन हैं और घुन के समान बस्तर को चाट रहे हैं। इन आततायी कर्मचारियों के संरक्षक अंग्रेजी-राज को नेस्तनाबूद कर दें" ।महारानी के उक्त उद्बोधन को सुनते ही वहाँ उपस्थित जनता में उत्साह की लहर दौड गयी तथा सभी ने प्रतिज्ञा की कि आज से ही वे अग्निपथ की ओर मुखातिब हो रहे हैं । रानी के सुझाव के अनुसार लाल कालेन्द्रसिंह ने उपस्थित जनसमुदाय में से नेतानार के गुण्डा धूर को महान् भुमकाल के बाह्य वर्ग का प्रमुख नायक चुना तथा हर एक परगने से एक-एक व्यक्ति को परगना-स्तर के विद्रोह को संचालित करने के लिए नेता नामजद किया।इन नेताओं की सहायता से एक गोपनीय किन्तु बृहत् युक्ति की तस्वीर बनी, जिसका लक्ष्य था बिटिश सरकार को उखाड़ फेंकना। इस युक्ति की सूचना किसी को भी नहीं लग यी। स्टैण्डेन ने लिखा था- "विद्रोहियों के इरादों को कोई भी भाँप नहीं पाया। बिटोहियों के बीच में रहने वाले दीवान, सरकारी कर्मचारी और अभागे विदेशी भी नहीं समझकि भीतर ही भीतर क्या पक रहा है। उन्हें उसी दिन पता चला, जब एकाएक भूचाल आ गया था और वे हक्के बक्के रह गए थे।"सारी योजना अत्यन्त गोपनीय ढंग से बनायी गयी थी। इसलिए पुलिस का खुफिया-तंत्र भी इसे सूंघ नहीं पाया। उसे सिर पर मंडराते हुए विद्रोह की भनक भी नहीं लगी। उसे यह भी खबर नहीं थी कि विविध सरकारी स्थापनाओं पर शीघ्र ही हमले होने वाले हैं। उक्त योजना में यह कार्यक्रम भी सम्मिलित था कि गुण्डा धूर की अध्यक्षता में एक ।
स्वतंत्र 'मुरियाराज' की स्थापना की जाय। यह तभी संभव था, जब सभी प्रकार से कत्सित ।विदेशी प्रशासनिक व्यवस्था को बेकार बना कर तहस-नहस कर दिया जाता और बस्तर को विदेशी गुलामी से सदा के लिए मुक्त करा लिया जाता।पूरी गोपनीयता के साथ सारे प्रबन्ध कर लिए गए। गोपनीयता इतनी थी कि सर्वोच्च । नेताओं के अतिरिक्त कोई आदिवासी भी यह नहीं जानता था कि क्या पक रहा है। किन्तु नेताओं की असामान्य क्रियाओं तथा सभी कार्यकर्ताओं को उनकी लगातार सलाह कि आने । वाले 'धूचाल' के प्रति सतर्क रहें, आदि से सभी लोगों के मन में गहरी उथल-पथल थी। सभी के मन में भावी योजना को जानने की उत्कण्ठा थी। उन्हें अन्त में बताया गया कि 'भुमकाल' आ सकता है। तब तक 'भुमकाल' का अर्थ था 'भूचाल'। आम जनता को क्या मालूम था कि उस भूचाल से विदेशी प्रशासन-तंत्र की नीव हिलाने की योजना है - वह एक सम्पूर्ण क्रान्ति का वाचक था। नामकरण से कार्यकर्ताओं को यह समझने में मदद मिली कि कोई प्रचण्ड संघर्ष होने वाला है, जिसमें उन्हें अपनी आहुतियाँ देनी पड़ सकती हैं। प्रमुख योजना इस प्रकार थी-(क) बिजली की तेज गति के साथ बस्तर के औपनिवेशिक शासकों पर आकस्मिक तौर पर आक्रमण करना जिससे उन्हें संभलने का कोई मौका न मिले।
(ख) बस्तर को देश के शेष भागों से जोड़ने वाली संचार-सेवाओं को नष्ट करना, जिनमें टेलिफोन के तार डाकखाने तथा लेटर बाक्स सम्मिलित थे।(ग) बस्तर तथा संलग्न क्षेत्र को जोड़ने वाले सड़क-संचार-साधन को अस्तव्यस्त कर देंना, जिससे अन्य जिलों से बस्तर का सम्पर्क कट जाय। फलस्वरूप सूचनाओं के आदान-प्रदान या सैन्यबल के सहज पहुँच के मार्ग को रोका जा सके।(घ) पूरी तरह यह प्रयास करना कि अधिकाधिक सरकारी अधिकारियों को पहले से ही अपने कब्जे में ले लिया जाय, जिससे कि समय आने पर उनका उपयोग बन्धक के रूप में किया जा सके या यदि वे किसी भी प्रकार का प्रतिरोध करते हैं तो उनका सफाया कर दिया जाय।योजना के विविध अनुभागों को कार्यान्वित करने के लिए प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं को सतर्कतापूर्वक चुना गया, जिनमें घोटुल के सदस्यों की संख्या सबसे अधिक थी।जनवरी 1910 के मध्य ताड़ोकी में पुन: गुप्त महासम्मेलन "जनवरी 1910 के मध्य में आदिवासियों का एक विशाल जत्था लाल कालेन्द्रसिंह। स पुनः मिलने के लिए ताडोकी गया। तब तक इस जत्थे ने यह संकल्प कर लिया था कि अब बस्तर को ब्रिटिश-परतंत्रता से मुक्त कराना होगा। यहाँ इस विशाल समूह ने भूतपूर्व पान के समक्ष यह कसम खायी कि दीवान के कहने पर वह अपने जीवन और धन को बस्तर का अस्मिता के लिए कुर्बान कर देगा। भूतपूर्व दीवान ने पहले की तरह आदिवासियों। को अपना सहयोग देने का आश्वासन दिया। स्थानीय देवीमंदिर में पूजा"ताड़ोकी के स्थानीय देवी मंदिर में हरचंद नायक नामक स्थानीय पुजारी ने दीवान तथा आदिवासियों के साथ सामूहिक पूजा की तथा सभी ने यह संकल्प किया कि देवी दन्तेश्वरी के वस्त्र में दाग नहीं लगने देंगे। उक्त शपथग्रहण के साथ ही अभियान अपने दूसरे । चरण में पहुँच जाता है।" भुमकाल की प्रतीक कटार का अवतरण"पूजा की समाप्ति के बाद लाल कालेन्द्रसिंह ने आदिवासी नेताओं को एक कटार भेंट की। यह 'कटार' महान् विप्लव में उनके समर्थन की एक प्रतीकात्मक वचनबद्धता थी। यह कटार एक हाथ से दूसरे हाथ, तथा एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र गुजरती गई और इसके गुजरने । का अर्थ था आदिवासियों के शस्त्र उठा लेने का आह्वान - a call to arms. "यह कटार जहाँ पहुँची, वहाँ-वहाँ के लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में अपने को झोंक दिया था। माना गया कि कटार मंत्रशक्ति से अभिचारित थी और देवी दन्तेश्वरी का प्रतीकात्मक आदेश थी- असुरों का संहार करने के लिए। कालांतर में यह कटार सुकमा-जमींदारी के दीवान जनकैया के हाथ में आयी और जनकैया ने अपनी ब्रिटिश-प्रतिबद्धता के कारण इस के प्रचार को रोक दिया। तदनुसार सुकमा के दक्षिण में यह कटार नहीं पहुँच पायी, जिससे वहाँ विद्रोह की तीक्ष्णता का अहसास नहीं हुआ" भुमकाल का दक्षिण-पश्चिमायन: दण्डामी माड़िया-क्षेत्र में भुमकाल का आरंभिक उत्कर्ष आरंभिक स्थिति में भुमकाल उत्तर-पूर्व में अन्तागढ़ से हटकर दक्षिण-पश्चिम के दण्डामी माडिया क्षेत्र में परावर्तित हो गया था। भुमकाल का केन्द्रीय क्षेत्र दण्डामी माहिया अंचल बन गया था। इस प्रकार के बदलाव के पीछे अनेक कारण भी थे। विगत परिच्छेद में। पोलिटिकल एजेण्ट दक्षिण-पश्चिम में चाँदा की ओर बढ़ गए थे तथा । दीवान जगदलपुर की ओर लौट आए थे। विद्रोही नेताओं की प्रारंभिक योजना यह थी कि ।। फरवरी को दीवान को जगदलपुर में ही बंदी बना लिया जाय। उस योजना के अनुसार दीवान। की सेना पर आक्रमण करने के लिए जगदलपुर में हजारों विद्रोही सैनिक इकट्ठा थे। पहली । फरवरी को जब दीवान जगदलपुर में नहीं मिले, तो विद्रोही सैनिकों ने जगदलपुर स्थित उनकेसैनिकों का सफाया कर दिया। इस हादसे का समाचार पाते ही एक दूत गीदम पहुँचा, जहाँ पण्डा बैजनाथ रुके हुए थे। उसने पण्डा बैजनाथ को सारी कहानी सुनाई और फिर बतलाया कि "किलेपाल जल रहा है और करीब बारह हजार माडिया आपको तलाशते हुए इधर ही आ रहे हैं। मैं जब किलेपाल से गुजरा तो उन्होंने आपके सम्बन्ध में मुझसे पूछताछ की। उनका यह संदेह था कि मैंने आपको अपनी बैलगाड़ी में छिपा रखा है। उन्होंने मेरी गाड़ी की पूरी तरह छान-बीन की और संतुष्ट हो जाने पर ही मुझे छोड़ा।" अंत में उस दूत ने पण्डा बैजनाथ से गुजारिश की कि वे शीघ्र ही बस्तर छोड़ दें, अन्यथा आदिवासी उन्हें मार डालेंगे।2 फरवरी को पण्डा बैजनाथ ने जगदलपुर जाने का विचार छोड़ दिया था और बीजापुर की
ओर जाने के मन बना लिया। रास्ते में उन्हें खबर मिली कि सशस्त्र माडिया समूचे दक्षिण बस्तर में चहल-कदमी कर रहे हैं।पूसपाल बाजार को लूट लिया है। चारों तरफ के रास्तों को विद्रोहियों ने सील कर दिया था। पण्डा बैजनाथ बिटिश-अधिकारियों तक सूचना भी नहीं भेज सकते थे । ऐसी स्थिति में वे अपने विश्वस्त साथियों के साथ बीजापुर के जंगल में छिप गए । बस्तर से बाहर जाने के प्रयास में माड़िया उनका वध कर सकते थे। चिंगपाल में लाल कालेन्द्रसिंह का विद्रोही जनता के नाम संदेश3 फरवरी को जगदलपुर से दक्षिण-पूर्व में स्थित चिंगपाल नामक स्थान पर विद्रोहियों की सेना इकट्ठी हुई, जहाँ यह एलान किया गया कि लाल कालेन्द्रसिंह ने बस्तर की जनता
को ब्रिटिश-सरकार पर आक्रमण करने के लिए आदेश दिया है। उन्होंने यह कहा है कि बस्तर के पुलिस-थानों और जंगल-विभाग के ठिकानों को जला दें तथा बस्तर में रहने वाले सभी परदेशियों को मार कर भगा दें कुकानार पर आक्रमणअगले दिन 4 फरवरी को कोकानार के बाजार को लूट लिया गया तथा एक अफगान सौदागर की हत्या कर दी गया (तदेव)। हत्या करने वालों में सोमनाथ शामिल थे। करंजी पर आक्रमण5 फरवरी को करंजी के बाजार को लूट लिया गया। करंजी गाँव कुँअर बहादुरसिंह के अधिकार में था। कुँअर बहादुरसिंह राजा के सगे सम्बन्धी थे और ब्रिटिश-सरकार के परम भक्त भी थे। बाजार को लूटने के बाद विद्रोहियों ने समूचे गाँव को ला लिया था इन्हीं कुंअर बहादुरसिंह से 1973 में मैंने भुमकाल-विषयक । साक्ष्य जुटाए थे। करंजी के बाद मारेंगा तथा तोकापाल की बारी आयी और यहां के पाठशाला-भवनों को जला दिया गया। जगदलपुर से रानी सुबरन कुँअर का जनता को आदेश6 फरवरी को रानी सुबरन कुंअर ने अपने अनुयायियों को यह आदेश दिया था कि वे पण्डा बैजनाथ को पकड़कर उनके दोनों हाथ काट डालें और उन्हें रानी के सम्मख हाजिर करें (तदेव, पैरा 8)। पण्डा बैजनाथ गुमनामी में जीवन बिता रहे थे। विद्रोही लगातार उनकी खोज कर रहे थे। गीदम की गुप्त सभा और मुरियाराज की घोषणा7 फरवरी विद्रोही - आन्दोलन की एक महत्वपूर्ण घटना का दिन था। गीदम में सभी विद्रोही नेताओं की एक गुप्त महासा आयोजित की गयी थी। जगदलपुर तथा दन्तेवाडा के बीच में स्थित गीदम नामक कस्बे में उस दिन बहुत ही गहमा-गहमी थी। दुर्भाग्यवश महासभा से सम्बद्ध सूचना ना काफी है, किन्तु इतना तो प्रामाणिक तौर पर कहा जा सकता है कि उस दिन रानी सुबरन कुँअर उस सभा में उपस्थित होकर कुछ महत्वपूर्ण घोषण-करना चाहती थीं। संभवतः पण्डा बैजनाथ को पकड़ने की योजना पर भी कुछ विचार किया गया होगा। विद्रोहियों को यह खबर थी कि पण्डा साहब गीदम में हैं। गीदम में दीवान साहब को न पाकर उनके क्रोध का ठिकाना न रहा। भोले-भाले आदिवासियों की उत्तेजना और क्रोध का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने जिस पेड़ पर दीवान का हाथी बाँधा गया था, उस पेड़ को तरह-तरह की गालियाँ देकर तीर-बरछे से छेद डाला और अंत में काट कर फेंक दिया। नेताओं ने अपने अनुयायियों के उक्त क्रोध को देखा था और उसे उचित दिशा में मोड़ने के लिए उक्त गुप्त सभा की थी। यह गुप्त सभा शायद स्वतः स्फुर्त रही होगी: क्योंकि इसमें सम्मिलित होने वाले अधिकतर नेता दण्डामी माडिया-क्षेत्र के ही थे। विविध विद्रोहीसमूहों के अधोलिखित नेता इस गुप्तसभा में भाग ले रहे थे - डिण्डा उर्फ हिडमा पेंडा, रोंडा पेडा, कोरिया माझी, धनीराम, सुकरू, भोडिया, महादेव, हुन्नाम उर्फ हुंगा, तथा कुराती सोमा । इन नौ नेताओं के अतिरिक्त गुण्डाधूर भी वहाँ उपस्थित थे। इन सबको रानी सुबरन कुंअर सम्बोधित करने वाली थीं। दक्षिण-पश्चिम बस्तर के विद्रोह को सफल बनाने के लिए इनका महत्वपूर्ण योगदान था।इन विद्रोही-समूह के नेताओं के समक्ष महारानी सुबरन कँअर ने यह उदघोषणा की। कि अब बस्तर से ब्रिटिशराज समाप्त हो गया है तथा आज हम पुनः मुरियाराज की स्थापना पर संकल्प लेते हैं रानी की उक्त उद्घोषणा का असर समूचे बस्तर में एक साथ हुआ था। फिर बिना किसी भेदभाव के बहुत दिनों तक पूरे बस्तर में सरकारी कार्यालयों, पाठशालाओं तक दुकानों को लूटा गया ।उक्त उद्घोषणा की पहली सफलता यह थी कि गीदम नामक कस्बा 7 फरवरी को विद्रोहियों के कब्जे में आ गया तथा अब उनके अधिकार-पत्र में यह भी शामिल हो गया कि धीरे-धीरे बस्तर के सभी कस्बों पर अधिकार कर लिया जाय।उधर "मुरियाराज" की स्थापना की खबर से राजा बहुत अधिक आतंकित थे। उन्होंने 7 फरवरी 1910 को चीफ कमिश्नर को एक टेलीग्राम भेजा कि बस्तर के माडिया तथा मुरिया विद्रोह पर उतर आए हैं तथा वे दक्षिण बस्तर में कस्बों को जला रहे हैं तथा बाजारों को लूट रहे हैं। स्टैण्डेन (तदेव) ने लिखा था -बारसूर पर आधिपत्य
गीदम से उसी दिन विद्रोहियों ने बारसूर की ओर कूच किया। तब तक बारसूर के दोनों नेगी-बन्धु विद्रोहियों के शत्रु बन गए थे। इस ऐतिहासिक नगर में एक भयानक युद्ध हुआ। यहाँ कोरिया माझी ने अपने सहयोगी जकर। पेद्दा के साथ मिलकर बैजनाथ पंडा पर आक्रमण किया तथा उसके शिर को कुचल डाला। बैजनाथ पंडा का प्रतिरोध समाप्त हो गया तथा बारसूर पर विद्रोहियों का अधिकार हो गया।कोण्टा पर धावाविद्रोहियों के एक दल ने कोण्टा पर धावा बोला, किन्तु वहाँ भूस्वामियों की उपेक्षा के कारण सफल नहीं हो पाए कटरू विद्रोहियों के वश में अन्य प्रमख विद्रोही-समूह पहले से ही कुटरू में जमा हो गए थे। लगभग एक पनाह से इस जमींदारी पर विद्रोहियों की गतिविधियां तेज थीं। विद्रोहियों ने इन्द्रावती की। पार्टी पर जोरदार अभियान चलाया था, जिसके फलस्वरूप 8 फरवरी को कुटरू उनके कब्जे में। आ गया था। यह नगर एक सप्ताह के निरंतर घेरेबंदी के कारण ही विद्रोहियों के हाथों में। आया था। इससे यह ज्ञात होता है कि विद्रोहियों की सैन्य क्षमता में काफी विस्तार हो गया था। कटरू के पतन के साथ ही वहाँ के जमींदार सरदार बहादुर निजाम शाह ने विद्रोहियों को
समझौते के लिए बुलाया और विद्रोहियों ने उन्हें "मुरियाराज" के अधीन घोषित कर कुटरू. की घेराबंदी समाप्त कर दी। विद्रोहियों का दन्तेवाड़ा- प्रवेश कुटरू में रात भर रुकने के बाद 9 फरवरी को विद्रोहियों ने दन्तेवाड़ा पर अचानक हमला कर दिया। कुटरू से दन्तेवाड़ा की कूच में विद्रोहियों ने पूर्वी मार्ग का सहारा लिया तथा बीच के सारे गाँवों को लूटते हुए व सरकारी अधिकारियों को प्रताड़ित करते हुए वे दन्तेवाडा पहुँचे थे। उन्होंने नगर को चारों ओर से घेर लिया। दन्तेवाड़ा के पुजारी बलराम जिया ने अपने सैन्य-बल के साथ विद्रोहियों को कड़ी टक्कर दी और विद्रोही उनके जत्थे से
हार गए। उसके इस प्रतिरोध के कारण विद्रोही शीघ्र ही उत्तर दिशा की ओर बढ़े, जहाँ उन्होंने कुआँकोण्डा से लगे गाँवों पर नियंत्रण के लिए असफल प्रयास किया। परिणामस्वरूप दन्तेवाड़ा को छोड़कर उन्होंने कुआँकोण्डा की ओर प्रस्थान किया। कुँआकोण्डा पर आक्रमणशीतकाल में 9 फरवरी को कुआँकोण्डा के विद्रोही ज्वालामुखी के समान फट पड़े। उन्होंने यहाँ तीन पुलिसकर्मियों को मार डाला। वे चाहते तो थे दन्तेवाड़ा-नगर को लूटना और उस पर आधिपत्य दिखाना। किन्तु वहाँ उनका विरोध अपने ही जातिवर्ग से हो रहा था, जो विद्रोहियों के प्रति शत्रुता का व्यवहार रखते थे। मसेनार के कोपा पेद्दा तथा मटेनार के हसेण्डी पेद्दा ने अपने विरोधियों के प्रतिरोध को कम करने के लिए अथक प्रयास किया। दोनों ने दो बार विद्रोहियों को बाहर खदेड़ दिया, जब वे दन्तेवाड़ा को लूटने के लिए बढ़ रहे मद्देड की घटना और दीवान का बचकर भाग जाना अब तक पण्डा बैजनाथ की खोज अधूरी थी। अनेक विद्रोही समूह उन्हें पकड़ने के लिए अपना जाल बिछाए थे, किन्तु दीवान बच कर बस्तर से निकल भागने में सफल हुए। ध्यातव्य है बीजापुर के दौरे से लौटकर जगदलपुर वापस जाते हुए पंडा साहब गीदम नामक स्थान पर पहले रुके। भोपालपटनम् में शिकस्त पण्डा बैजनाथ जब विद्रोहियों को पकड़ से बाहर हो गए, तो विद्रोहियों ने भोपालपटनम पर धावा बोल दिया। भोपालपटनम के जमींदार न्याय और व्यवस्था बनाए रखने में सफल हुए जगरगुण्डा का प्रभावभोपालपटनम के समान जगरगुण्डा की स्थिति नहीं थी; क्योंकि वहाँ विद्रोहियों के भय से स्थानीय जमींदार के अधिकारी बस्तर छोड़कर भाग गए थे और जमींदार विद्रोहियों की शरण में आ गया था (तदेव)। उसूर में आगजनी और हत्याभोपालपटनम से 40 मील दूर उसूर में एक पुलिस अधिकारी तथा उसकी पत्नी की हत्या कर दी गयी तथा वहाँ परदेशियों के सारे घरों को जला डाला गया। परदेशी बस्तर । छोड़कर बाहर चले गए (तदेव) मूल्यांकनदक्षिण-पूर्व बस्तर में यह विद्रोह 1876 के विद्रोह से पूरी तरह भिन्न था। इसमें मुल बात यह थी कि 1876 और 1910 में विद्रोहियों ने एक सीमित क्षेत्र से विद्रोह प्रारंभ किया। और आगे चलकर पूरे राज्य की समस्या बन गए । यद्यपि विद्रोही अपने आप को इन्द्रावती । नदी के उत्तर में स्थित कर ब्रिटिश सरकार के लिए तत्काल चुनौती नहीं बन पाए, तथापि वे दक्षिण-पश्चिम बस्तर में फैलने में समर्थ हो सके थे। वह इन्द्रावती तथा गोदावरी के मध्य का एक विस्तृत भूभाग था। इस भौगोलिक विस्तार के साथ विद्रोहियों की सैन्य क्षमता में भी विकास हुआ था और 1 फरवरी से 13 फरवरी के बीच सचमुच उनके अधिकार में । दक्षिण-पश्चिम बस्तर का समचा अंचल आ गया था। उनकी इस उपलब्धि को आज भी इस । अंचल के लोग गौरव के साथ स्मरण करते हैं। विद्रोह की आग जगदलपुर से कोण्टा के बीच निरंतर जलती रही। कभी मंद हो।जाती थी तो कभी फिर भडक उठती थी। आन्दोलन की इस प्रमुख श्रृंखला के भीतर अनेक । प्रकार की अन्तर्धाराएँ प्रवाहित हो रही थीं। कुल मिलाकर अत्यधिक जटिलता की एक धूमिल तथा आवृत तस्वीर बनती है। विद्रोहियों की गतिविधियों से यह आभास मिलता है कि 13 फरवरी तक प्रायः सभी विद्रोही समूह अपनी उंचाई पर थे और उन्होंने जो लूटमार की थी. उससे उत्पादक शक्तियों को बहुत धक्का लगा था। गतिविधियों की दृष्टि से सरकार । विद्रोहियों के सामने बौनी थी और उसकी सारी ताकत जगदलपुर के राजमहल को बचाने में ही लग गयी थी। हमें यह सुनकर आश्चर्य होता है कि विद्रोही एक के बाद दूसरे नगर पर कब्जा करते रहे और सरकार मूक दर्शक बन कर खड़ी रही। विद्रोही गतिविधियों की संरचना की दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्र वे थे, जहाँ जैपुर । हैदराबाद तथा अहीरी की सीमाएं बस्तर से लगती थीं। 29 मार्च 1910 तक यह एकअत्यधिक संवेदनशील क्षेत्र था। विद्रोहियों के लिए यह अनेक कारणों से हितकारी था। पहली बात तो यह है कि यहाँ की जनसंख्या अपेक्षाकृत छितराई हई थी और पर्वतों की दीर्ध । श्रृंखलाएं थीं, जो वनों से आच्छादित थीं। ये वन इतने अधिक दूर्गम थे कि सरकारी फौजों के द्वारा यहाँ सैनिक कार्रवाही असाधारण रूप से बहुत कठिन थी। इस प्रकार फिर से आक्रमण के लक्ष्य से विद्रोही उन घने जंगलों में आश्रय ले सकते थे और आक्रमण के बिना भय के वहाँ फिर से समूहबद्ध होकर अगली योजना पर विचार कर सकते थे। दूसरी बात यह थी कि यह क्षेत्र सामरिक दृष्टि से स्थिति बहुत सुरक्षित था। विद्रोही समूहों के लिए यह संभव था
कि वे इसे विविध दिशाओं में आक्रमण के लिए एक केन्द्र के रूप में इस्तेमाल करते।अब हम सरकारी पक्ष पर विचार करें। कहना होगा कि विद्रोह को दबाने के लिए। सरकारी प्रयास निराशाजनक थे। सरकारी "प्लानिंग" घटिया थी तथा उसमें निजी असफलताएं छिपी हुई थीं। राज्य का प्रधानमंत्री ही जंगलों में छिपता हुआ बाहरी आश्रय की तलाश में था और विद्रोह के भड़कने के साथ ही वह राजधानी लौटने से कतराता रहा और बिटिश-सेना की सुरक्षा में बस्तर से बाहर भागने में सफल हुआ। सरकारी-तंत्र में भगदड़ मची हुई थी। लोग या तो छिप रहे थे अथवा बस्तर छोड़कर भाग रहे थे। अव्यवस्था का। आलम यह था कि राज्य की राजधानी बारह दिनों तक विद्रोहियों के कब्जे में थी। वहाँ सरकारी-सेना 13 फरवरी को ही पहुँच पायी। इस प्रकार विद्रोहियों ने पहली बार जनता के राज "मुरियाराज" को स्थापित किया। वे "बिना ताज के बादशाह" थे। भारत के मुक्ति-संग्राम के इतिहास में यह घटना स्वर्णाक्षरों में लिखी जाने योग्य है। उनमें आत्मविश्वास जागा और वे आजादी के गीत गाने लगे - नना झोरिया लयोना, नना वातोना लारोनिया कावेर नना वातोना, वाटी ते वाटी ते बादो बेरा डेरा कटीत ।
सही मायनों में विद्रोह की आकस्मिक पराकाष्ठा 7 फरवरी 1910 को हो गयी थी। इससे पहले और इससे बाद भी बस्तर में इतने अधिक विशाल किन्तु स्वतंत्र समूह कभी भी एक होकर एक ही समय में विद्रोह का संचालन नहीं कर पाए। इसी दिन गीदम में 'मुरियाराज' की उद्घोषणा हुई थी।उक्त भुमकाल बस्तर के आदिवासियों के स्वाधीनता-संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। उक्त भुमकाल में लाल कालेन्द्रसिंह तथा गुण्डाधूर का करिश्माई व्यक्तित्व आदि । से अंत तक छाया रहा। किन्तु कमी यह थी कि ये 'भुमकालेया' किसी एक खास क्षेत्र में अपनी जड़ों को मजबूत करने के बजाय क्षेत्रों में तबदीली करते रहे। किसी स्थान पर यदि ।का ठोस नियंत्रण हो जाता तो स्थिति दूसरी ही होती। इसके अतिरिक्त ये अपनी कोई ठोस जनैतिक संरचना को खड़ा करने में सफल नहीं रहे। यदि इन्होंने कोई ठोस राजनैतिक
संरचना बना ली होती, तो उससे सैनिक शक्ति में भी इजाफा होता। ब्रिटिश-सेना की बंदकों और तोपों के सामने इनकी तलवारें तथा धनुष-बाण बेकार सिद्ध हुए। चूँकि अंग्रेजों को इस ।में विद्रोहों को दबाने का एक दीर्घ अनुभव था, इसलिए वे इस महान् भुमकाल को भी सरलता से कुचलने में सफल हो गए।1910 के महान भुमकाल के महान् योद्धा गुण्डाधूर बस्तर के आदिवासियों के बीच अमर हैं। * आश्चर्य तो यह है कि राजनीति ने ईसाई- धर्म में दीक्षित तथा अंग्रेजी दाँ बिहार के बिरसा मुंडा (1875-1901) को जो मान्यता प्रदान की, वह मान्यता धुर अशिक्षित तथा अपने आदिवासी-धर्म में कर्त्तव्यनिष्ठ गुण्डाधूर
को अभी तक नहीं मिल पायी। बिरसा का आन्दोलन ईसाई-प्रभाव से अनुप्राणित था, जब कि गुण्डाधूर का आन्दोलन आटविक मानसिकता से प्रभावित था। यह भी ध्यान देने योग्य है कि बिरसा मुंडा तथा गुण्डाधूर दोनों • ही समसामयिक थे। स्वास्थ्य की गिरावट के कारण 9 जून 1901 को बिरसा मुंडा की मृत्यु हुई, जब कि गुण्डा धूर 1910 की क्रान्ति के असफल होने पर बीहड़ वनों में गुम हो गया। उसकी मृत्यु की कोई खबर नहीं है। शायद वह मृत्युंजय था। ऐसे महानायक की याद में आज तक कोई स्मारक भी नहीं बना।
 | मुरिया विद्रोह -1876 (आर्यन चिराम) // muriya vidroh-1876 (aaryan chiram) Posted: 07 Aug 2020 08:54 PM PDT 
1876 के मुरिया-विद्रोह के कारणउपर्युक्त उद्धृत चश्मदीद गवाहों के बयानों तथा विद्रोह के विषय में ब्रिटिश-अधिकारियों के द्वारा दिये गये महत्वपूर्ण कारणों को संक्षेप में निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है:(क) ब्रिटिश सरकार द्वारा किये गये विभिन्न भराजस्व-विषयक प्रयोगों की वजह से
आदिवासियों में अभूतपूर्व हलचल पैदा हुई, जिसने सारे क्षेत्र को दलदल में फँसा दिया था। जमींदारी, रैय्यतवारी तथा ठेकेदारी का बस्तर में नया प्रयोग किया गया, जिसकी वजह से आदिवासियों पर कहर टूट पड़ा। मार्क्स ने भी स्वीकार किया है कि "जमींदारी और रैय्यतवारी दोनों ही न तो जनसाधारण के लिए थीं जो जमीन जोतते थे और न ही भूस्वामियों के लिए थीं. जो उसके मालिक थी" ठेकेदारी-व्यवस्था भी ठेकेदारों के पक्ष में रैय्यत की जमीनों के हस्तांतरण से कुछ कम न थी। कलम की जोर से बस्तर के जमींदार तथा छत्तीसगढ़ के प्रभावकारी व्यक्तियों को (जो पहले राजस्व उगाही करते थे) उनका पैतृक मालिक बना दिया गया। इसके कारण दंगे भड़क उठे तथा शासक की नीतियों के विरोध में लोग एक स्थान पर जमा होकर अपना रोष व्यक्त करने लगे। अंग्रेजों की नीति आदिवासी समुदाय की एकता पर कुठाराधात मानी गयी। इस प्रकार सम्पूर्ण राजस्व-व्यवस्था का ढाँचा चरमराने लगा। आदिवासी-परम्परा का पूरी तरह से विनाश हो गया। इग्लैण्ड ने आदिवासी समाज के सारे ढाँचे को गडबडा दिया। ब्रिटिश सरकार ने कोई नये विकासशील कदम भी नहीं उठाये। अपनी पुरातन संस्कृति की समाप्ति तथा विकास के लिए नवीन विचारधारायें उपलब्ध न होने के कारण। मुरिया विकास की दौड़ में पिछड़ गया।समाज का पारम्परिक ढाँचा जो कृषि तथा हस्तशिल्प पर आधारित था, चरमराने। लगा। इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप रैय्यत ही केवल प्रभावित नहीं हुए। हस्तशिल्प-उद्योग में गिरावट के कारण हजारी महार और पाड़िया बेरोजगार हो गये। इस परिवर्तन की प्रतिक्रियास्वरूप पुराने जमीदार भी प्रभावित हुए। सिरहा और उनके धार्मिक आदेश भी बुरी । तरह से प्रभावित हुए। कृषि पर आधारित सारा ढाँचा टूटने लगा, जिससे आदिवासियों का जीवन अस्तव्यस्त हो गया। आदिवासियों पर दो विपरीत प्रभाव पड़े. सामंतवादी तथा।उपनिवेशवादी। इन्हीं कारणों की वजह से आदिवासियों ने राजा तथा अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का शंखनाद किया।(ख) अंग्रेज सरकार का राजा भैरमदेव के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप भी मुरियाओं की संवेदनाओं को झकझोरने वाला था। 1875 में अंग्रेज सरकार ने राजा को आदेशित किया की वह दिल्ली-दरबार में "प्रिंस आफ वेल्स" का अभिवादन
करे। यह तय किया गया कि राजा सिंरोचा होते हुए दिल्ली-दरबार में अपनी उपस्थिति दर्ज करायेंगे। बस्तर की जनजातियाँ अंग्रेज- सरकार के व्यवहार के प्रति शंकालु थीं तथा उन्होंनेराजा से दिल्ली न जाने का निवेदन किया। राजा ने अपनी असहायता व्यक्त की तथा इससे जनजातियों के मस्तिष्क में यह भ्रम उत्पन्न हो गया कि राजा दिल्ली से कभी वापस नहीं आयेगा। जनजातियों ने विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह का एक कारण बदनाम प्रधानमंत्री गोपीनाथ कपड़दार भी था। जनजातियाँ यह सोचती थीं कि राजा की अनुपस्थिति में गोपीनाथ । उनका शोषण करेगा। इन सब ने बारूद का काम किया, जिससे सारे क्षेत्र में विद्रोह की ज्वाला धधक उठी।
(ग) मुरिया गोपीनाथ के विरोधी थे। साथ ही वे नौकरशाही-व्यवस्था से भी नाराज । थे। जब गोपीनाथ को बस्तर का दीवान बनाया गया, तो यह मान्य परम्पराओं के विरुद्ध था: क्योंकि उस समय तक शासक-वर्ग के लोगों में से ही दीवान चुना जाता था। गोपीनाथ । रावत जाति का था तथा उसका बस्तर का प्रधानमंत्री बनना शासक वर्ग में पनप रहे असंतोष ।
का महत्वपूर्ण कारण बना । गोपीनाथ ने स्वयं को इतना शक्तिशाली बना लिया था कि राजा भैरमदेव उसक हाथों में मात्र एक कठपुतली था। गोपीनाथ ने बस्तर में ठेकेदारी-प्रथा को प्रारम्भ किया, जिससे बस्तर वासियों में असंतोष फैलने लगा था।(घ) अंग्रेजों ने फूट डालो और शासन करो' की नीति अपनाई। सिरोंचा के डिप्टी। कमिश्नर ने बस्तर के हाथी को जैपुर के हाथों में सौंप दिया। इससे भी आदिवासियों को आघात लगा। आदिवासियों को यह विश्वास हो चला था कि अंग्रेज उनके राजा का निरंतर अपमान कर रहे हैं।(ङ) मुरिया-विद्रोह का एक निश्चित क्रांतिकारी सन्दर्भ भी है। मुंशियों को शोषक करार दिया गया तथा उन्हें आम आदमी का शत्रु माना गया। गोपीनाथ ने कई सौ मुंशियों को नियुक्त किया, जो उर्दू जानते थे। ये व्यक्ति आदिवासी संवेदनाओं या जनजातीय संवेदनाओं को नहीं समझते थे तथा इनका आर्थिक शोषण करते थे। जनजाति बोलियों के प्रति होने वाले अनादर के कारण भी आदिवासियों ने शस्त्र उठा लिया।(च) मुरिया-विद्रोह का एक अन्य कारण ठेकेदारों द्वारा जबरिया श्रम तथा माझियों के अधिकारों में कमी करना भी रहा । इससे जनजातीय व्यवस्था ही छिन्न-भिन्न हो गई तथा वे गलाम बनकर रह गये। आदिवासियों ने शोषण के विरुद्ध तथा अपनी रक्षा- हेतु अपनी कमर कस ली ।।(छ) मुरिया-विद्रोह के कारण कुछ नये तथ्य प्रकाश में आये। सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि विद्रोहियों को महल से पूर्ण सहायता मिली। भैरमदेव की मुख्य रानी तथा । राजा के भाई लाल कालीन्द्रसिंह आदिवासियों को परोक्ष रूप से सहायता देते रहे। ।(ज) मुरिया-विद्रोह की जाँच के लिए ब्रिटिश सरकार ने मैकजार्ज की अध्यक्षता में। अगस्त 1876 में जो अपना प्रतिवेदन दिया था (द्र. फारेन पोलिटिकल इंटरनल, नेशनल आकईिव्स आफ इंडिया, अगस्त 1876 अप्रकाशित), वह यद्यपि कुटिलतापूर्ण था तथापि उससे । मुरिया-विद्रोह की बिटिश-व्याख्या को समझा जा सकता है। तदनुसार मैकजार्ज के ही। अनुसर - "मुरिया-विद्रोह के घटित होने पर 1876 में गोपीनाथ कपडदार का प्रशासन समाप्त । हो गया। विद्रोह के कारणों की जांच के दौरान दीवान के प्रशासन का वास्तविक रूप खुलकर सामने आया। दण्ड न्यायालय के प्रमुख आदितप्रसाद से दीवान गोपीनाथ की गाड़ी मित्रता ।थी और उसी आदितप्रसाद ने आम जनता पर बहुत अधिक अत्याचार किया था। इसी । अत्याचार की तात्कालिक प्रतिक्रिया थी मुरिया-विद्रोह। आम जनता को प्रायः बाध्य किया जाता था कि वह राज्य के अधिकारियों को माल की आपूर्ति मुफ्त में ही करे। ये अधिकारी। जब स्थानीय उत्पाद; यथा घी, मांस, चावल खरीदते थे, तो प्रायः उसका भुगतान नहीं करते। थे। प्रशासन में राजा की न तो कोई रुचि थी और न ही कोई अनुभव। वह राजकाज को दीवान और अन्य छोटे अधिकारियों के भरोसे छोड़ चुका था। क्षेत्र की दुर्गमता औरआवागमन के साधनों की कमी के कारण आम जनता की हालत और भी बदतर होती गयी; क्योंकि आम जनता वैयक्तिक तौर पर जगदलपुर आकर राजा के सामने अपना दुखड़ा नहीं रो। सकती थी। बेगारी (बंधुआ मजदूरी) की प्रथा थी. जिसके अनुसार राज्य के अधिकारियों के । गुलाम के रूप में आदिवासियों को बिना किसी पारिश्रमिक के काम करना होता था। यह प्रथा बहुत पुरानी थी और इससे लोगों की स्थिति और भी अधिक बिगड़ गयी। इतना ही नहीं। बस्तर के बाहर के व्यापारी तथा साहुकार भी जब बस्तर आते थे, तो स्थानीय लोगों से बिना। किसी पारिश्रमिक के मुफ्त 'बेगार' करवाते थे; जैसे उनके माल को मुफ्त में ही ढोना और उनके परिवहन की व्यवस्था करना। आदिवासियों की यह शिकायत थी कि परदेशी लोग उनका भूमि पर बलात्कब्जा कर रहे हैं। संक्षेप में स्थानीय प्रशासन की प्रमुख गलती यह थी।उसक पास राज्य के सहायक अधिकारियों के प्रभावशाली देखभाल व नियंत्रण के लिए। कारगर मशीनरी नहीं थी। सताए हुए लोगों की शिकायत सुनने वाला कोई नहीं था।।
शिकायत लेकर जिनके पास कोई आदिवासी जाता, वह व्यक्ति उसकी परेशानियों को और बढ़ा देता था (तदेव, अगस्त 1876, प्रोसिडिंग क्रमांक 170, पैरा 21) ।(झ) मैकजार्ज ने विद्रोह के अन्य कारणों की भी चर्चा की थी। उसके अनुसार "इस विद्रोह में आदिवासियों का असंतोष ही एकमात्र कारण नहीं था। एक कारण यह भी था कि। दरबार में महत्वाकांक्षी प्रतिस्पर्धियों के परस्पर विरोधी स्वार्थ थे, जो कि आदिवासियों में अत्यधिक प्रभावशाली राजगुरु लोकनाथ, दीवान गोपीनाथ तथा आदित प्रसाद से बहुत अधिक चिढ़ते थे। राजगुरु ने मुरिया लोगों को विद्रोह के लिए उकसाया था और उन्हें अपना पूरा सहयोग देने का वचन दिया था। इसका प्रमाण उन पत्रों से मिलता है, जो राजगुरु ने आदिवासी माझियों को भेजा था और बाद में वे पत्र ब्रिटिश-अधिकारियों के हाथ में आए। राजा भैरमदेव के चचेरे भाई (दलगंजनसिंह के पुत्र) तथा एक अन्य व्यक्ति दूधनाथ भी आदिवासियों को भड़काने के काम में लगे हुए थे। विद्रोह पर की गई जाँच से यह भी प्रकाश में आया कि दरबार के असंतुष्ट तत्व भैरमदेव की जगह उनके चचेरे भाई लाल कालीन्द्रसिंह को राजा बनाना चाहते थे। उस समय लाल कालीन्द्रसिंह सोलह वर्ष केनवयुवक थे और राजा की कोई संतान भी नहीं थी। भूतपूर्व दीवान मोतीसिंह जिसको पहले राजा ने दीवान के पद से हटा दिया था, वह भी गरम तवे में अपनी रोटियाँ सेंकना चाहता था। इस प्रकार दरबार के असंतुष्ट आभिजात्य वर्ग के सुलगते हुए असंतोष तथा आदिवासियों के बीच असंतुष्ट वर्ग को दहकने के लिए मात्र एक चिंगारी की आवश्यकता थी। वह फरवरी 1876 में अनायास मिल गई (तदेव, पैरा 23)।"इस प्रकार संक्षेप में उक्त विद्रोह के प्रमुख दो कारण थे-(अ) शासकीय मशीनरी तथा ठेकेदारों की मिलीभगत से आदिवासी-जनता का शोषणकिया जा रहा था (ब) आदिवासियों की भूमि का बड़े किसानों तथा ठेकेदारों तथा सरकार के द्वारास्वामित्वहरण। विद्रोह की शुरूआत : मारेंगा में विद्रोह की गतिविधियाँ जनवरी-फरवरी 1876 में विद्रोह ने अपना रूप दिखाया। एक राजनीतिक दुत ने पत्र । के द्वारा राजा भेरमदेव को बम्बई में भारत-यात्रा पर आने वाले प्रिंस आफ वैल्स की सलामी के लिए ब्रिटिश सरकार का परवाना दिया। इस परवाने को प्राप्त कर राजा भैरमदेव बम्बई के लिए प्रस्थित हुये। उन्हें सिरोंचा होते हुए बम्बई जाना था (मैकजार्ज 1876)। राजा अपने सैनिकों तथा दीवान गोपीनाथ कपडदार के साथ मारेंगा नामक गाँव तक पहुँचे, जो जगदलपुर, से 6 मील दूर है। इस गाँव में राजा को रोक दिया गया तथा आगरवारा परगना के मुरिया । आदिवासियों ने राजा को दिल्ली न जाने हेतु निवेदन किया तथा गोपीनाथ अथवा किसी मुंशी को दिल्ली भेजने की प्रार्थना की। मुरिया आदिवासियों के मत में राजा की अनुपस्थिति। में बस्तर में शोषण का दमनचक्र शुरू हो जाएगा। बस्तर के आदिवासियों ने राजा से कहा कि । आपकी अनुपस्थिति में दीवान गोपीनाथ तथा आदित्यप्रसाद की दया पर उन्हें जीना होगा, जो कि अब तक हमारे दमनकर्ता के रूप में बदनाम हैं (मैकजार्ज तदेव)। वे यह भी सोच रहे थे कि अंग्रेज भैरमदेव को बम्बई से वापस नहीं आने देंगे।
प्रजा की राजा के प्रति पारम्परिक आज्ञाकारिता भी एक महत्वपूर्ण कारण थी। राजा को दिल्ली न जाने की सलाह देना राजा के प्रति प्रजा की सम्मान-भावना को व्यक्त करता है। पारम्परिक स्वतंत्रता को छोड़ अंग्रेजों के प्रभाव को स्वीकार करना तथा उनके। शोषण-चक्र में फंसना आदिवासियों को स्वीकार्य नहीं था। राजा को आदिवासियों का। असंतोष तब समझ में आया, जब एक मुरिया 'बेगारी' ने राजा के सामान को ढोने से मना कर दिया (मैकजार्ज, तदेव)। इस पर भी जब राजा ने असंतुष्ट प्रजा की बात नहीं मानी, तो आगरवाना परगना के मुरिया-आदिवासियों ने राजा का घेराव किया। जब दीवान भी स्थिति को नहीं सम्हाल पाया, तो उसने सैनिकों को भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दे। दिया, जिसमें कुछ आदिवासियों की मृत्यु हो गई तथा 18 आदिवासियों को गिरफ्तार कर लिया गया (दि ब्रेट, 1909)। अनेक आदिवासियों को पीटा गया और उन्हें । जगदलपुर-जेल भेज दिया गया। इसके बाद बीच में ही राजा ने यात्रा स्थगित कर दी तथा वे जगदलपुर वापस लौटने लगे (मैकजार्ज, तदेव)।- कुरंगपाल की घटनादीवान गोपीनाथ कपड़दार ने बिना वारंट के मुरिया-आदिवासियों को गिरफ्तार करना प्रारम्भ कर दिया। मारेंगा गाँव में 18 आदिवासियों को गिरफ्तार कर कुरगपाल ले जाया गया, जहां उन्हें शारीरिक यातनायें दी गई तथा उन्हें बेगार- हेतु यातनापूर्वक मनवाया गया। अभिभावकों के सामने बच्चों को पीटा गया। महिलाओं का उनके सम्बन्धियों के सामने अपमान किया गया। आदिवासियों के घर उजाड दिये गये व उनके जानवरों को मनचाहे स्थानों पर छोड़ दिया गया। आदिवासियों की सम्पत्ति को खुले आम लूटा गया। इस अमानवीय कृत्य का आदिवासियों ने साहस से मुकाबला किया तथा वे दीवान के सामने नहीं झुके । जब दबाव से काम नहीं चला तो दीवान ने शोषण की अन्य रणनीतियाँ अपनाई। रास्तेमें राजा के सुरक्षा-सैनिक निहत्थे आदिवासियों पर टूट पड़े। अनेक मुरिया लोगों को उन्होंने
मार गिराया और उससे भी अधिक असंख्यों को घायल कर दिया (मेकजार्ज, तदेव)।दीवान ने 18 गिरफ्तार मुरिया-आदिवासियों को सूचित किया कि राजा के आदेश स वे जगदलपुर आएँ, जहाँ 'बेगार' प्रथा को सुलझाया जायेगा। आदिवासियों ने जगदलपुर जाने से मना कर दिया, जब तक कि राजा उनके साथ न हों। इससे गोपीनाथ रुष्ट हो गया तथा उसने 18 आदिवासियों को जगदलपर खींच लाने के लिए सेना को आदेश दिया। इस मध्य 500 आदिवासी सहायता के लिए आ गये तथा उन्होंने गिरफ्तार 18 आदिवासियों को छुड़ा लिया। आदिवासियों ने सिपाहियों को गिरफ्तार कर लिया। गोपीनाथ भाग गया औरइस प्रकार विप्लव प्रारम्भ हुआ। भैरमदेव स्थिति की गम्भीरता को समझ गया तथा उसने कुंअर दुर्जनसिंह को विद्रोह की समाप्ति के लिए भेजा। आदिवासी विप्लव पर आमादा थे तथा उन्हें कोई नहीं रोक पाया। विद्रोह का प्रारंभिक चरमोत्कर्ष
जब आदिवासियों ने सामंतों तथा औपनिवेशिक शासकों के विरुद्ध खुलकर विद्रोह करने की ठान ली तो वे आरापुर नामक गाँव में अपनी रणनीति तय करने हेतु एकत्र हए। विद्रोहियों को अपने विरुद्ध खेली जाने वाली चालों का पता था तथा बस्तर में उन्हें अपने। शोषकों के विरुद्ध रणनीति तय करने में देर न लगी। ऐसे शोषक जिन्होंने आदिवासी। संवेदनाओं को रौंद डाला था। आरापुर ग्राम में झाड़ा सिरहा नामक व्यक्ति को विद्रोहियों ने अपना नेता चुना । जब उन्होंने आक्रमण करने की ठान ली तब प्रत्येक गाँव में एक तीर भेजना प्रारम्भ किया गया। यह तीर प्रत्येक ग्राम प्रमुख ने स्वीकार किया। यह तार इस बात का प्रमाण था कि सभी गांव शोषण के विरुद्ध एक है। प्रतीक के रूप में आम की डाली प्रत्येक खलिहान में रोपी गयी - विद्रोह की ज्वाला के रूप में। इस विधि से आरापुर में 700 मुरिया जमा हुए, जहां उन्होंने सैनिक तैयारियों की। पत्थर हडिडयाँ तीर धनुष तथा बाण, भाले. आदि जमा किये गए, ताकि सामंतवादियों तथा शोषकों के विरुद्ध युद्ध प्रारभ किया जासके। जब राजा भैरमदेव को यह विदित हुआ कि कुँअर तथा दुबे विद्रोहियों को मनाने में
असफल रहे हैं, तो उसने स्वयं विद्रोहियों से सम्पर्क किया। आशंकित दीवान भी सेना के साथ राजा के पीछे चल पड़ा, जो घोड़े पर सवार था। कालिदरसिंह भी घोड़े पर सवार होकर वहाँ पहुँचा। उस समय आदिवासी अत्यन्त कुपित थे। जब उन्होंने दीवान को घुड़सवारी करते देखा तो वे उस पर टूट पड़े, जिससे दीवान अत्यन्त भयभीत हो गया तथा वह राजा की पालकी के पीछे जा छिपा। जिन सिपाहियों ने दीवान को सुरक्षा के घेरे में ले लिया था,विद्रोही उन पर भी टूट पड़े। कई सुरक्षा सैनिक घायल हुए तथा राजा भैरमदेव ने सुरक्षा सैनिकों को आदिवासियों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। राजा तथा विद्रोही प्रजा के मध्य प्रमासान युद्ध हुआ तथा छह मुरिया आदिवासी मारे गये। राजा ने सन्देश द्वारा जगदलपुर से हाथी-सैनिकों को बुलवाया। हाथी को आते देख विद्रोहियों ने हथियार डाल दिया तथा आरापुर से दूर भाग गये, जहाँ उनको कोई नहीं खोज पाया।जगदलपुर में विद्रोही गतिविधियाँ राजा तथा उनक दीवान जगदलपुर लौट आए। उन्हे अंदेशा था कि विद्रोही महल पर आक्रमण करेंगे तथा सुरक्षा सैनिकों को रौंद डालेंगे। राजा ने किले की सुरक्षा हेतु आदेश दिया अनाज का भंडारण किया गया। महल के चार प्रमुख दरवाजे बन्द कर दिये गये । सुरक्षा के लिए। हथियार महल के चारों तरफ जमा किए गए। 500 सुरक्षाकर्मी हमेशा महल की रक्षा के लिए तैनात रहते थे। इस प्रकार महल तथा अधिकारियों की रक्षा के सारे प्रबन्ध किये गये। सारे महत्वपूर्ण व्यक्तियों को आक्रमण से बचाने के लिए महल में रहने के आदेश दिये गये। जब महल में सुरक्षा के सारे इन्तजाम किये जा रहे थे, तब विद्रोही जगदलपुर पहुंचे चुके थे। वे राजधानी में एकत्र हए ।।झाड़ा सिरहा विद्रोहियों का नेता था।इस बीच आदिवासियों का रोष और भी गहन होता गया तथा वे सामंती शक्तियों के विरोध में खुलकर सामने आ गये। झाड़ा सिरहा चमत्कारी शक्तियों से युक्त व्यक्ति था। उसने । आदिवासी-विद्रोह को राजनीतिक तथा धार्मिक रूप से समर्पित भाव से अपनाने उत्साहित किया। आम के वृक्ष की शाखा प्रतीक के रूप में एक जगह से दूसरी जगह भेजी गई, ताकि सभी शोषण के विरुद्ध एक हो सकें। कम समय में ही विद्रोही-समूह एक हो गये। भतराजातीय समूह भी विद्रोहियों में सम्मिलित हो गया । इस प्रकार विद्रोह जंगल की आग के समान फैलता गया तथा सभी स्वतंत्रता-सैनिकों ने इनका साथ दिया। मैकजार्ज के अनुसार जगदलपुर में तीन हजार मुरिया इकट्ठे हुए थे , जब कि प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार उनकी संख्या बीस हजार से अधिक रही होगी।2 मार्च 1876 को एक ऐतिहासिक घटना हुई। क्रातिकारी संघर्ष के इतिहास में इसे "लाल दिवस" भी कहा जाता है। विद्रोहियों ने योजना बनाई तथा गुप्त रूप से अपनी कार्रवाईयाँ प्रारम्भ की। यह तय किया गया कि राजधानी पहुँचने वाले संवाद-माध्यमों को समाप्त कर दिया जाये। महल को चारों तरफ से घेर लिया जाय तथा जगदलपुर को सामंती शक्तियों से मुक्त कराया जाये (मैकजार्ज, तदेव)। विद्रोहियों की योजनाएँविद्रोहियों द्वारा बनाई गयी तथा कार्यरूप में परिणत की गयी जगदलपुर घेराव कीमहत्वपूर्ण योजना निम्नानुसार थी-(क) यह तय किया गया कि महल पर अचानक तथा तीव्र गति से हमला किया जाये। तथा उस पर अधिकार कर लिया जाये।(ख) सभी संवाद माध्यमों पर कब्जा करने की योजना बनाई गई ताकि महल तथा बिटिश अधिकारियों के मध्य संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाये।(ग) गैर-विद्रोहियों को गतिविधियों से पूर्णत: अलग रखा जाये।(घ) यह योजना थी कि सामंतवादी अधिकारियों को घेर लिया जाये तथा उन्हें बस्तर ।से बाहर खदेड दिया जाये।इस प्रकार विद्रोहियों ने जगदलपुर के लिए एक 'मास्टर प्लान' तैयार किया। गद्दारों को विद्रोहियों के बाणों का शिकार होना पड़ा था। विद्रोही महल पहुंचने वाली रसद को बीच
में ही छीन रहे थे। अनेक पुलिस कर्मी मारे गये तथा कुछ विद्रोही भी हताहत हुए। विद्रोह का प्रभावविद्रोही पूर्णतः आशान्वित थे कि एक दिन महल उनके हाथों में आ जायेगा तथा महल के सुरक्षा-कर्मचारी रसद न मिलने के कारण आत्मसमर्पण कर देंगे। विद्रोहियों ने पानी की टंकियों तथा तालाबों पर भी अपना अधिकार कर लिया था।महल के मुंशियों के साथ दीवान भी आत्मसमर्पण करने के लिए लगभग तैयार हो गये थे। वे स्वयं को सुरक्षित रख पाने में सफल नहीं हो पा रहे थे। विद्रोही समूहों में महरा ही सूचनाओं के आदान-प्रदान का कार्य करते थे। उन्हीं को आने-जाने की छूट थी । गोपीनाथ ने एक महरा-महिला के माध्यम से ब्रिटिश अधिकारियों को एक पत्र भेजा कि पिछले चार महीनों से। राजधानी घिर चुकी हैं तथा शीघ्र ही सेना भेज दी जाये। यह पत्र मोम से लपेट कर महरा-महिला। की पेज की हाँडी में छिपा दिया गया था। ऊपर पेज तथा नीचे मोम में लपेटी पाती थी। राजा भैरमदेव यह जानते थे कि मुरिया-विद्रोही- समूह में लोकनाथ ठाकुर का काफी सम्मान है। उन्होंने ठाकुर से विद्रोहियों द्वारा कब्जा समाप्त कर देने का निवेदन किया, किन्त लोकनाथ ठाकर विद्रोही नेताओं को मना पाने में असफल रहे तथा राजा ने ठाकुर को बस्तर। राज्य से बाहर कर दिया तथा उनके पुत्र गोकुलनाथ को राजगुरु बना दिया। लोकनाथ ठाकुर महरा-महिला के साथ जैपुर चले गये, जिसके पास हण्डी में मोम से लिखा गया गुप्त-पत्र था। दीवान की इस चाल को राजगुरु नहीं समझ सके तथा आदिवासियों को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। राजगुरु को महरा के साथ जाने दिया गया, जिन पर कि आदिवासी।विश्वास करते थे। वह गुप्त-पत्र कोरापुट पोस्ट- आफिस में डाल दिया गया, जहाँ से बस्तर । की घेराबन्दी की खबर अग्रेजों तक पहुंच गई। यही वह समय था, जब कि विद्रोहियों की। योजना का पराभव हुआ।अंग्रेजी फौजों का आगमन मैकजार्ज के अनुसार "राजा की क्रोधोन्मत्त अपील पर सिंरोचा के डिप्टी तथा जैपुर के
असिस्टेण्ट एजेण्ट ने सैन्य दल भेजा।" विद्रोह को दबाने के लिए अधोलिखित राज्यों से सेना तथा रसद-सामग्री भेजी गयी.(क) रायपुर से सेना तथा रसद(ख) जैपुर से पाँच सौ सैनिक(ग) विजगापट्टनम से 540 सेनिक ।मई 1876 तक 5 हजार सरकारी सैनिक कई सौ पुलिस जवानों के साथ पड़ोसी राज्यों से आए तथा सिरोचा से थलसेना की तीन रेजीमेण्ट रवाना हुई। सिंरोचा के डिप्टी कमिश्नर मैक जार्ज ने सेना का नेतृत्व किया। जब पर्याप्त सेना रायपुर, जैपुर, सिरोंचा से आ गई तो विद्रोहियों के पास गोरिल्ला-युद्ध तथा जंगली-युद्ध के अलावा और कोई विकल्प नहीं रहा। वे दो से चार हजार के बीच समूह बना लेते । जैसे-जैसे अंग्रेज-फौजें आती गई, विद्रोही जंगलों की तरफ भागते गये। जब अंग्रेज-फौजों ने भीड़ पर काबु पा लिया. तो विद्रोही पहाड़ों तथा पेड़ों पर चढ़ गये। आवाजें करने लगे तथा नगाड़े बजाने लगे, ताकि और अधिक लोगों को जमा किया जा सके। वे अंग्रेजी फौजों पर चट्टानों के पीछे छुपकर तीर। चलाते । किन्तु वे अंग्रेजी फौजों को रोक नहीं पाये। अन्ततः उनका नेता झाडा सिरहा शायद ।
मार डाला गया और इसके साथ राजधानी पर विद्रोहियों का कब्जा समाप्त हो गया तथा विद्रोह को कुचल दिया गया ।विद्रोहियों की जगदलपुर में पराभव के कारण मुरिया- आदिवासियों ने शहर छोड़ दिया । झाडा सिराहा का अन्त क्या हआ? यह आज भी अनिश्चित है। शायद उसकी मौत। अंग्रेज फौजों द्वारा हुई। अनेक विद्रोही नेताओं का भाग्य भी अनिश्चित है तथा उनके नाम। इतिहास से लुप्त हो गये हैं। यह सम्भव है कि झाड़ा का इन्द्रावती घाटी में वध कर दिया। गया हो। साथ ही यह भी सम्भव है कि अन्य नेताओं ने आत्मसमर्पण कर दिया हो। इस । सम्बन्ध में सम्मिलित ब्रिटिश सेना के सैन्य संचालक मैकजार्ज का कथन इस प्रकार है । "ब्रिटिश सरकार की तात्कालिक कार्यवाही ने परिस्थिति को बहत अधिक बिगडने से बचा।लिया, अन्यथा बहुत ही बुरी स्थिति का सामना करना पड़ता (मैकजार्ज, तदेव, पैरा 12-16)"। मुरिया-विद्रोहियों की मर्यादा तथा संयम-शक्ति का परिचयविद्रोही आदिवासियों के खिलाफ सैन्य संचालन करने वाले मैकजार्ज ने युद्ध के
दरम्यान मुरियाजनों के द्वारा दर्शायी गयी मर्यादा तथा संयम की भूरि-भूरि प्रशंसा की है तथा। अपने उक्त कथन के समर्थन में उसने कतिपय साक्ष्य भी प्रस्तुत किया है। उन्हीं के अनुसार - "समूचे विद्रोह के दौरान आदिवासियों ने बहुत अधिक मर्यादा तथा संयम का प्रदर्शन किया था। यदि ऐसा न होता तो एक घोर हिंसात्मक तथा दीर्घगामी आदिवासी विद्रोह निश्चित था। विद्रोही केवल अपने पारम्परिक अस्त्र-शस्त्रों, धनुष, बाण तथा भालों से ही मुस्तैद नहीं थे, उनको आम जनता का भी पूरा समर्थन था (तदेव, पैरा 28)।" मैकजार्ज को इसमें कोई संदेह नहीं था कि जैपुर तथा सिंरोचा के सैन्यदल के आने से पूर्व ही ये कुद्ध आदिवासी चाहते तो अपने क्रोध के "टार्गेट" सभीव्यक्तियों का सामूहिक वध कर सकते थे, किन्तु इन्होंने ऐसा नहीं किया। मैकजार्ज पुनः लिखते हैं . "विद्रोह के दरम्यान विद्रोहियों ने राजा के खजाने को हस्तगत कर लिया था। ऐसी स्थिति में राजा के सैन्यदल ने आदिवासियों पर धुआँधार गोलियाँ चलायी। गोलीबारी के दौरान ही विद्रोहियों के मुखिया ने खजाने के रुपयों की तत्काल गिनती की। उसने खजाने के रुपयों को अपनी सुरक्षा में रखा और गोलीबारी के खत्म होते ही खजाने के रुपयों को सही सलामत राजा के पास वापस लौटा दिया, जिससे कि कोई व्यक्ति विद्रोहियों को लुटेरा न कह सके - (फारेन पोलिटिकल इण्टरनल, नेशनल आर्काइव्स आफ इंडिया, अगस्त1876,प्रोसीडिंग क्रमांक 170, पैरा 39)।, विद्रोहियों के संयत व्यवहार का दूसरा उदाहरण भी मैकजार्ज ने प्रस्तुत किया है- "जगदलपुर-जेल की सुरक्षा उस समय राजा के बीस सिपाही कर रहे थे। महल से थोड़ी दूर पर ही ऊँचे टीले पर जेल था। जेल की दीवालें मिट्टी की थीं तथा छप्पर घासफूस की। विद्रोही बहुत आसानी से जेल की दीवालें तोड़ सकते थे व छप्पर फाड़ सकते थे और उन बीस सिपाहियों पर सरलता से काबू पा सकते थे। आक्रमण करके अपने बंदी साथियों कोमुक्त करा सकते थे। किन्तु विद्रोहियों ने अपने आपको संयत रखा और उन्होंने ऐसा नहींकिया (तदेव)।"मैकजार्ज ने इस प्रकार की मर्यादा तथा संयम के अनेक उदाहरणों की सूचना ब्रिटिश-सरकार को दी थी मुरिया-विद्रोहियों का 'एथॉस' महाभारत के वीर-योद्धाओं के समान था, जब कि उनका सामना कलियुगी राक्षसों से हो रहा था। यही कारण है कि नैतिक कारणों से वे जीता।हुआ युद्ध हार गए। ब्रिटिश सरकार की आतंकवादी नीतियों का कुचक्र
प्रारम्भ में कछ सीमित क्षेत्र में विद्रोह से जुड़े हुए व्यक्तियों को पकड़ने का आदेश मैकजार्ज ने दिया था। गोपीनाथ कपड़दार, आदित्य प्रसाद पेशकार और लोकनाथ ठाकुर तथा अन्य हजारों मुरिया विद्रोहियों को गिरफ्तार किया गया तथा उन्हें सिंरोचा ले जाया गया। वहाँ सभी पर मुकदमें चले। लोकनाथ ठाकर और आदित्य प्रसाद पेशकार पर विद्रोहियों का साथ देने का आरोप लगाया गया। गोपीनाथ कपड़दार पर स्थिति को संभाल न पाने का आरोप लगाया गया। राजा भैरमदेव अन्य व्यक्तियों से इतने चिंतित नहीं थे। वे केवलगोपीनाथ कपड़दार की रिहाई चाहते थे। राजा ने गोपीनाथ को रिहा करने हेतु कमिश्नर को 15 मई को एक पत्र भी लिखा था। चीफ कमिश्नर इस प्रस्ताव से सहमत नहीं था (जे.एन.नील एस्ववायर का पत्र राजा भैरमदेव के नाम, 12 जून, अप्रकाशित)। पत्र में राजा का प्रस्ताव ठुकरा दिया गया। पत्र के अनुसार - "चीफ कमिश्नर ने 15 मई 1876 का राजा का वह पत्र आश्चर्य के साथ पढ़ा, जिसमें यह कहा गया था कि उसके बिना कामकाज ठीक से नहीं हो पा रहा है। गोपीनाथ की गिरफ्तारी दंगों की रोकथाम हेतु आवश्यक है तथा उसकी रिहाई की माँग अनुचित है। गोपीनाथ को बस्तर वापस नहीं आने दिया जायेगा। वह सरकार के लिए शांति-स्थापना में बाधक है।" गोपीनाथ सिंरोचा में रहा तथा 1878 ई में उसकी मृत्यु हुई मुरिया-विद्रोह को दबाने के लिए मैकजार्ज ने जिस कपट जाल का प्रयोग किया था. वह ब्रिटिश-नीति का ही एक अंग थी, जिसके अनुसार मैकजार्ज ने आदिवासी और गैर
आदिवासी की चाल से विद्रोहियों में विभाजन पैदा कर दिया था। मैकजार्ज को आदिवासियों । की पीड़ा और सचाई में कोई संदेह नहीं था (तदेव, पैरा 16, 17, 19, 20. 21, 22), किन्तु । इसका दोषी वह ब्रिटिश सरकार को मानने के बजाय बस्तर की गैर आदिवासी जनता को मानता था। ऐसी स्थिति में 'फूट डालो और राज करो' नीति के आधार पर आदिवासी विद्रोहियों के खिलाफ कोई दण्डात्मक कारवाही नहीं की गयी।ब्रिटिश सरकार ने राजा से लेकर उसके छोटे कर्मचारी तक को इस विद्रोह के लिए जिम्मेदार करार दिया था। गोपीनाथ कपड़दार तथा आदितप्रसाद को देशनिकाला मिला था। विद्रोह में लोकनाथ राजगुरु की सुस्पष्ट भागीदारी के कारण उनका भी देशनिकाला हो गया ।। मध्यप्रान्त के चीफ कमिश्नर ने राजा भैरमदेव की कटु निन्दा की थी तथा उनके प्रशासन के प्रति घोर असंतोष व्यक्त किया था। अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाही बरतने के लिए उन्हें वार्निग दी गयी थी और उनसे यह कहा गया कि भविष्य में यह ध्यान रखे कि जब सरकार पहले से अधिक कोई कठोर आर्थिक उपाय करती है, तो उससे आदिवासी जनता को कोईपीड़ा न पहुँचे (तदेव, क्रमांक 172, पैरा 35)।"ब्रिटिश-सरकार इस बात पर विशेष चिन्तित थी कि राज्य के प्रभावशाली। अधिकारियों ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया है और उन्होंने राजा की कमजोरियों का फायदा उठाया है।" एक आदेश से "सारे कायस्थ-कर्मचारियों को बस्तर से बाहर कर दिया। गया, क्योंकि आदिवासियों ने इन मुंशियों को अपना प्रथम शत्रु माना था (मैकजार्ज)।" । मुरिया-दरबार का सूत्रपात मैकजार्ज एक चालाक ब्रिटिश-अधिकारी था। बस्तर में पहली बार आदिवासी तथा गैर आदिवासी के कार्ड को उसी ने खेला था। 8 मार्च 1876 को जगदलपुर में पहली बार एक मुरिया-दरबार की व्यवस्था की गयी,जहाँ सिंरोचा के डिपुटी कमिश्नर मैकजार्ज ने राजा, उनके अधिकारी तथा मुरिया-विद्रोहियों को सम्बोधित किया तथा सभी ने उसे सुना। मैकजार्ज ने आदिवासियों की यातनाओं को कम करने का वायदा किया। विद्रोहियों ने मैकजार्ज को भरोसा दिलाया कि राजा भैरमदेव से उन्हें कोई शिकायत नहीं है। बस्तर के अन्य राजाओं के समान भैरमदेव को भी बस्तर के आदिवासी ईश्वर का अवतार मानते थे (चीशोल्म, जनवरी 1886, अप्रैल 1886, सितम्बर 1886, नेशनल आर्काइव्स, अप्रकाशित)। इसीलिए उसे विद्रोह का मुखिया मानते हुए भी निकालने का साहस न कर पाए, अन्यथा बस्तर उनके नियंत्रण से बाहर होता। मैकजार्ज नेआदिवासियों को इस बात के लिए राजी किया कि भविष्य में जब कोई शिकायत हो तो कानून को अपने हाथ में लेने के बजाय उससे अपनी शिकायतें दर्ज कराएँ। मैकजार्ज ने राजा तथा उनकी आदिवासी प्रजा के बीच में पुन: मेलमिलाप करवाया और राजा से कहा कि वह आदिवासियों की शिकायतों को दूर करे । उसने भी बस्तर के प्रशासन की कमजोरियों को दूर करने का संकल्प लिया। 1876 से उक्त मुरिया-दरबार की बस्तर में परम्परा रही है। निष्कर्षहमारी दृष्टि में मुरिया-विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में दो कारणों सेमहत्वपूर्ण है-(क) विद्रोही युद्ध-कौशल के साथ मैदान में उतरे, तथा ।(ख) उन्होंने शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द की।जिस तरीके से विद्रोह को कुचल दिया गया, उससे आदिवासियों के मन में गहरी पीड़ा समा गयी तथा इसने अंग्रेजों के खिलाफ ईंधन का काम किया। बस्तर के इतिहास में। उक्त विद्रोह एक गौरवपूर्ण घटना है। इस विद्रोह ने 1910 के महान् भुमकाल को प्रेरणा दी।।_मुरिया-विद्रोह को आधुनिक रंग देना इतिहास के साथ खिलवाड़ करना होगा। विद्रोहियों ने जिन तरीकों को अपनाया, वे मर्यादित तथा संयमित थे। उनके कार्यकलाप स्थानीय महत्व के थे। उस समय आदिवासियों में जागरूकता का विकास हो रहा था। उनके धनुष-बाण तथा भालों में बंदूकों की सी तेजी थी। सभी दृष्टिकोणों से यह एक असमान युद्ध था, जिसमें सामंतवादी शक्तियों ने आधुनिक हथियारों तथा युद्ध-कौशलों का इस्तेमाल किया तथा विद्रोहियों ने आदिम शस्त्रों का प्रयोग किया। ऐसे युद्ध में आदिम समूहों का हारना लगभग तय होता है।1876 ई. के मुरिया-विद्रोह की ऐतिहासिकता तथा स्वरूप की विशद विवेचना प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। हमने 1876 ई. के मरिया-विद्रोह को भारतीय स्वाधीनता-संग्राम का एक अविभाज्य हिस्सा भी माना है एवं यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि तत्कालीन मुरिया-आदिवासी समुदाय राष्ट्र की धड़कनों से पूर्णतः परिचित
था तथा वह अपनी जमीन से हमेशा जूडा रहा।1876 का मुरिया-विद्रोह 1853 से शनैः शनैः विकसित घटनाओं एवं दुर्घटनाओं का परिणाम था। 1853 में कम्पनी-सरकार द्वारा बस्तर में प्रवेश के साथ आदिवासियों के शोषण का कुचक्र प्रारम्भ हुआ। 1861 ई. की पटेली-व्यवस्था या रैय्यतवारी-व्यवस्था, 1864 की जमींदारी-व्यवस्था, 1868 से साल-वनों के शोषण की कथा, अंग्रेजों की कच्चे माल-विषयक नीतियाँ तथा हस्तकौशल एवं हस्तशिल्प अन्तत: 1876 में मुरिया-विद्रोह के कारण बने। राजा तथा मंत्री भी जब अंग्रेजों की हाथ की कठपुतली बन गए, तब
आदिवासियों के धैर्य का बांध टूटना ही था। 1876 के विद्रोह के वीर सैनिक मुरिया वास्तव में जगदलपुर-क्षेत्र के राजमुरिया।थे। इनका झोरिया मुरिया या घोटुल मुरिया से कोई सम्बन्ध नहीं है। राजमुरिया जगदलपुर के विकसित मैदानों में निवास करते थे तथा पश्चिम में नागाटोका से जैपुर तथा सीतापुर से लगभग तीस-चालीस मील दूर उत्तरी इन्द्रावती नदी तक इनकी सीमा रेखा थी।1876 ई. के मुरिया-विद्रोह के अनेकानेक कारण थे। ब्रिटिश शासन द्वारा किए गए विभिन्न भू-राजस्व-विषयक प्रयोगों की वजह से आदिवासियों में अभूतपूर्व असंतोष उत्पन्न हुआ। अंग्रेज-सरकार का राजा भैरमदेव के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप भी
मुरियाओं की संवेदनाओं को झकझोरने वाला था। गोपीनाथ का तानाशाही रवैया भी मुरिया विद्रोह का कारण बना। अंग्रेजों की 'फूट डालो और शासन करो' की नीति भी1876 के मुरिया-विद्रोह के लिए उत्तरदायी थी। इस प्रकार, संक्षेप में 1876 के मुरिया-विद्रोह के दो महत्वपूर्ण कारण रहे प्रथम शासकीय व्यवस्था तथा ठेकेदारों द्वारा शोषण तथा द्वितीय-शासन तथा जमींदारों द्वारा शोषण।लेखक:-आर्यन चिराम
सन्दर्भ:- बस्तर का मुक्ति संग्राम:-१७७४-१९१० डॉ शुक्ला (मध्य पदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी ) |
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