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रविवार, 26 अप्रैल 2020

बेटी (कविता:-तोषण कुमार चुरेन्द्र "दिनकर"


॥बेटी॥
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बेटी बनके जनम धरेंव, दाई ओ तोर कोरा मा।
दिन कटै हे दाई तोर, एकठन बेटा के अगोरा मा।

मोर छठ्ठी मा रुखा सुखा,सगा सोदर नइ मानेस ।
का बनगेंव बैरी दुसमन, अपन लइका नइ जानेस।

तहूं बेटी रेहे अपन दाई के,महूं तोरे छंइहा आवंव।
रहूं तोर संग आघू पाछू, छोड़ तोला कहां जावंव।

का बेटा हा सबरदिन,अपन पुरखा कुल तारत हे।
बेटी घलो कम नइहे, मइके ससुरार ल उबारत हे।

तइहा के बात बइहा लेगे,नवा जमाना आवत हे।
आज बेटी बेटा संन,कदम ले कदम मिलावत हे।

बेटी जागिस जीजा बाई, कोरा मा शिवा खेलाय।
गरजिस हाबे लछमी बाई, अंगरेज दूरिहा भागय।

महूं ल थोरकून पढन दे,जिनगी ल अपन गढन दे।
नांव होवय मोर संग तुहर,अइसन करम करन दे।

मरहूं  देश बर जीहूं देश बर ,देश के सेवा बजाहूं।
चहूंओर ए दुनिया मा ,भारत के तिरंगा लहराहूं।
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 तोषण कुमार चुरेन्द्र "दिनकर"


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